“शीतयुद्ध ख़त्म होने के बाद से ज़्यादातर जगहों पर लोकतांत्रिक व्यवस्था सैनिकों और जनरलों ने ध्वस्त नहीं किया है, लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकारों ने ही ऐसा किया है।” हाल के दिनों में सबसे ज़्यादा पढ़ी गई किताबों में एक ‘हाऊ डेमोक्रेसीज़ डाई’ का यह केंद्रीय दावा है। अपने समय के सबसे विलक्षण राजनीति वैज्ञानिकों में एक स्टीवन लेवित्स्की और डैनिएल ज़िब्लाट इस पुस्तक के लेखक हैं।
तख़्तापलट अपवाद!
साल 1999 में पाकिस्तान और 2014 में थाईलैंड के तख़्तापलट की तरह ही हाल-फ़िलहाल म्याँमार में हुआ सैनिक तख़्तापलट अपवाद है। इस तरह के तख़्तापलट 1960 और 1970 के दशक में ज़्यादा आम थे। आज के समय में जो आम है, उसे विद्वानों ने लोकतांत्रिक प्रणाली का अपना धर्म छोड़ना कहा है। यह नई अवधारणा है जिसमें निर्वाचित राजनेता लोकतांत्रिक प्रणाली में क्षरण करते हैं, कई बार वे यह काम क़ानून के दायर में रह कर करते हैं। लेवित्स्की और ज़िब्लाट ने लिखा है,
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“लोकतंत्र को अंदर से ध्वस्त करने का कई सरकारों का यह काम क़ानूनी इस मामले में है कि वह विधायिका से पारित होता है या अदालत से स्वीकृत होता है।”
स्टीवन लेवित्स्की और डैनिएल ज़िब्लाट की किताब ‘हाऊ डेमोक्रेसीज़ डाई’ का अंश
जो क़ानूनी, वही लोकतांत्रिक भी!
उन्होंने दक्षिण अमेरिका और यूरोप के कई उदाहरण दिए। उन्होंने बताया है कि किस तरह उन्होंने जिस देश में जन्म लिया और जहाँ वे रहते हैं, उस अमेरिका को डोनल्ड ट्रंप ने कैसे नुक़सान पहुँचाया है। वे इसके विशेषज्ञ हैं। उन्होंने ज़ोर देकर कहा है कि जो क़ानूनी है, ज़रूरी नहीं कि वह लोकतांत्रिक भी हो।
लेवित्स्की और ज़िब्लाट भारत के परिप्रेक्ष्य में पूरी तरह प्रासंगिक हैं। भारत का लोकतंत्र अपना धर्म छोड़ रहा है, सैनिकों और जनरल के कारण नहीं, बल्कि इसलिए कि निर्वाचित राजनेता लोकतंत्र को अंदर से ध्वस्त कर रहे हैं। बहुत जल्द ही दुनिया में सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाली दो सालाना रिपोर्टों को दंडित किया जाएगा-अमेरिका का फ्रीडम हाउस और स्विटज़रलैंड का वी डेम इंस्टीच्यूट। पिछले साल उन्होने तर्क दिया था कि भारत अपनी लोकतांत्रिक हैसियत खोने वाला है। देखें कि इस बार की सालाना रिपोर्ट में वे भारत को अलोकतांत्रिक बताते हैं या आशंकि रूप से स्वतंत्र।
भारत के सत्तारूढ़ दल के लोग इसका ज़ोरशोर से विरोध कर सकते हैं और कह सकते हैं कि बीजेपी की सरकार को लोगों ने चुना है और उसने इन क़ानूनों को पारित कराने के लिए उसे वोट दिया है।
संसद का अनुमोदन
वे यह तर्क भी दे सकते हैं कि कश्मीर से लेकर नागरिकता संशोधन तक, बंदीकरण से कृषि सुधार तक, बीजेपी के क़ानूनों को संसद का अनुमोदन हासिल है। मौलिक अवधारणा के स्तर पर उलझन की स्थिति यहीं है।
लोकतांत्रिक सिद्धान्त के लिए चुनाव ज़रूरी हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं। सिर्फ निर्वाचन को लोकतंत्र के समान नहीं माना जा सकता है। लोकतंत्र को सूचकांक से मापा जाता है। यह आंशिक रूप से चुनाव पर निर्भर है और आंशिक रूप से इस पर कि दो चुनावों के बीच सरकारें क्या करती हैं।
लोकतांत्रिक सिद्धान्त दो बातों पर निर्भर है-कार्यपालिका पर संस्थागत दबाव और नागरिक स्वतंत्रता। क्या कार्यपालिका की ताक़त पर विधायिका और न्यायपालिका का नियंत्रण है क्या नागरिक बोलने को आज़ाद हैं क्या वे संगठन बनाने और विरोध प्रदर्शन करने को आज़ाद हैं नात्सी लोकतंत्र (1933-45) के यहूदी-विरोधी भयावहता के बाद यह सवाल उठता है : क्या बहुसंख्यक के क्रोध से अल्पसंख्यक सुरक्षित हैं
भारत की चिंता
भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली का अपने धर्म से हटना ज़्यादा चिंता की बात इसलिए है कि विद्वानों का कहना है कि यह अद्भुत था। दशकों के शोध से पता चलता है कि लोकतंत्र कम आमदनी के लोगों के बीच स्थापित किया जा सकता है, यह अधिक आय के लोगों के बीच भी बचा रहता है। सांख्यिकी रूप से वैध इस सिद्धांत को भारत 1975-77 के अपवाद को छोड़ कर अब तक ग़लत साबित करता रहा है। विकासशील देशों में सिर्फ कोस्टारिका का लोकतांत्रिक रिकॉर्ड इससे बेहतर है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के सबसे बड़े लोकतांत्रिक सिद्धान्तकार रॉबर्ट डहल ने कहा कि भारत इस लोकतांत्रिक सिद्धान्त का सबसे अच्छा उदाहरण है।
भारत का यह लोकतांत्रिक अपवाद अब क्षीण हो रहा है। लोकतांत्रिक देशों में शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन करने पर राजद्रोह का आरोप नहीं लगाया जाता है, नागरिकता के अधिकार के लिए धार्मिक अपवाद का इस्तेमाल नहीं किया जाता है,
लोकतांत्रिक देशों में असहमति रखने वाले पत्रकारों और अख़बारों को डरा-धमका कर प्रेस की आज़ादी को नियंत्रित नहीं किया जाता है, सैद्धान्तिक रूप से सहमत नहीं होने वाले छात्रों और विश्वविद्यालयों पर हमला नहीं किया जाता है। लोकतांत्रिक देशों में असहमति रखने वाले कलाकारों और लेखकों को डराया नहीं जाता है, विरोधियों को दुश्मन नहीं माना जाता है, पीट-पीट कर मार डालने वाली भीड़ पर खुशी नहीं मनाई जाती है और न्यायिक चापलूसी विकसित नहीं की जाती है।
वैचारिक एकरूपता
एक ऐसा लोकतंत्र जिसमें सभी एक सुर में बोलते हों, जो नागरिकों के कर्तव्य को नागरिकों के अधिकार से ऊपर मानता हो, जहाँ वैचारिक एकरूपता स्थापित करने के लिए डर का इस्तेमाल किया जाता हो, जो कार्यपालिका की शक्तियों पर नियंत्रण को कमज़ोर करता हो, अपनी ही परिभाषा के उलट है। लोकतांत्रिक सिद्धान्तकारों का कहना है कि ये लोकतंत्र के मजबूत होने के नहीं, अधिनायकवाद बढ़ने के संकेत हैं।
इन चीजों का सबसे ज़्यादा प्रभाव अंदरूनी होता है। सत्ता का विरोध करने वालों को राजनीतिक, क़ानूनी, वित्तीय व शारीरिक तरीकों से निशाने पर लिया जाता है। पर इसके बाहरी प्रभाव भी होते हैं। नरेंद्र मोदी ने कई बार कहा है कि उनके सत्ता में आने के बाद से दुनिया में भारत की इज्ज़त बढ़ी है। पहले यह सच भी रहा हो तो यह अवधारणा बदल रही है।
भारत का दबदबा!
किसी देश की अंतरराष्ट्रीय स्थिति राजनीतिक, रणनीतिक और आर्थिक कारणों से होती है। चीन का सकल घरेलू उत्पाद भारत से पाँच गुणे ज़्यादा है, भारत का दबदबा उसकी तुलना में पाँच गुणे कम है। और 2014 के बाद से होने वाला आर्थिक सुदृढीकरण अभी भी नहीं हुआ है। लोकतंत्र निश्चित रूप से भारत की सबसे बड़ी परिसंपत्ति था।
शुद्ध रणनीतिक शब्दों में, दुनिया के तमाम देशों में चीन के प्रति बढ़ते आक्रोश के कारण निश्चित रूप से भारत का महत्व अभी बना रहेगा। पर अब राजनीति भौगोलिक राजनीति से प्रतिस्पर्द्धा करेगी।
चीन के कारण भारत को रणनीतिक साझेदार के रूप में स्वीकार किया जाता रहेगा, पर यदि लोकतंत्र का अपने रास्ते से हटना जारी रहा तो यह स्वीकार्यता स्वाभाविक नहीं होगी।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन अपनी विदेश नीति डोनल्ड ट्रंप के तरीके से हट कर बनाएंगे। जैसा कि वे कई बार दावा कर चुके हैं, यदि मानवाधिकार और लोकतंत्र की लगातार उपेक्षा होती रही तो वे अलग नीतियाँ बनाएंगे।
‘फ्रीडम हाउस’ ने पिछले साल की सालाना रिपोर्ट में कहा था, सदी के शुरू से ही अमेरिका और उसके सहयोगियों ने हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में चीन के मुक़ाबले भारत को संभावित साझेदार के रूप मे रणनीति और लोकतांत्रिक वजन की वजह से स्वीकार किया था। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के तहत भारत लोकतांत्रिक मूल्यों से हट रहा है, भारत और चीन के बीच की विभाजक रेखा धुंधली पड़ती जा रही है। भारत में पिछले साल गर्मियों में सफलतापूर्वक चुनाव संपन्न करवाया, लेकिन बीजेपी ने बहुलतावाद और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के रास्ते से अपने को दूर हटा लिया और इन मूल्यों के बिना लोकतंत्र बच नहीं सकता।
तो मूल सवाल है, क्या भारत में लोकतंत्र का क्षरण और होगा भारत इंदिरा गांधी के 1975-77 के आपातकाल के जितने नज़दीक आज है, पहले कभी नहीं रहा। पर दो अहम अंतर हैं। कश्मीर के अलावा और किसी जगह नेताओं की सामूहिक गिरफ़्तारी नहीं हुई है, और कई राज्य सरकारें वे पार्टियाँ चला रही हैं जिसका शासन दिल्ली में नहीं है। ये दोनों भी यदि नहीं रहते हैं तो निश्चित रूप से भारत में लोकतंत्र ख़त्म हो जाएगा।
(इंडियन एक्सप्रेस से साभार)
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