सालाना दो करोड़ युवाओं को रोज़गार देने का वादा करने वाले नरेंद्र मोदी बेरोज़गारी के मुद्दे पर बुरी तरह फँस गए हैं। कोरोना महामारी से ध्यान हटते ही युवाओं का गुस्सा उबाल पर पहुँच चुका है और वे रोज़गार की माँग करने लगे हैं। ऐसे में सवाल उठना लाज़िमी है कि सरकार ने रोज़गार के मौके बनाने के मामले में क्या किया है, वह कितनी कामयाब रही है और कितनी नाकाम। प्रधानमंत्री और बीजेपी भले ही वायदा पूरा न कर सके हों, पर क्या उन्होंने इसकी कोई ईमानदार कोशिश भी की या यह एक और ज़ुमला था
ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि रोज़गार के मुद्दे पर बीते दिनों युवाओं का गुस्सा सोशल मीडिया पर फूट पड़ा। ट्विटर पर #मोदी_रोज़गार_दो, #modi_rojgar_do, #मोदी_मतलब_देश_चौपट और #cgl19marks हैशटैग पर लाखों ट्वीट हुए। नतीजा यह हुआ कि #modi_rojgar_do काफी देर तक 1 नंबर पर ट्रेंड करता रहा।
इस गुस्से को समझने के लिए हम दिसंबर महीने के बेरोज़गारी पर एक नज़र डालते हैं। सेंटर फ़ॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आँकड़ों के अनुसार, दिसंबर में राष्ट्रीय बेरोज़गारी दर 9.06 प्रतिशत पर पहुँच गई। यह नवंबर में 6.51 प्रतिशत थी। इसी तरह ग्रामीण बेरोज़गारी दिसंबर में 9.15 प्रतिशत पर थी, यह नवंबर में 6.26 प्रतिशत पर थी।
उच्चतम स्तर पर बेरोज़गारी
राष्ट्रीय और ग्रामीण बेरोज़गारी की ये दरें जुलाई 2020 से अब तक के उच्चतम स्तर पर हैं। जून 2020 में बेरोज़गारी की राष्ट्रीय दर 10.18 प्रतिशत और ग्रामीण बेरोज़गारी 9.49 प्रतिशत थी।
दिलचस्प बात यह है कि जिस समय ग्रामीण और राष्ट्रीय बेरोज़गारी बढ़ती जा रही है, शहरी बेरोज़गारी में कमी आई है। यह 8.84 प्रतिशत आँकी गई है।
मनरेगा
बेरोज़गारी के इन आकड़ों से यह साफ है कि भारतीय अर्थव्यवस्था भले ही कोरोना और उस वजह से हुए लॉकडाउन से उबरने लगी हो, रोज़गार के नए मौके नहीं बन रहे हैं।
लॉकडाउन के दौरान मनरेगा की बहुत तारीफ हुई और यह कहा गया कि उसमें करोड़ों लोगों को काम मिला। लेकिन इसके पीछे का सच भी जानना ज़रूरी है।
महात्मा गांधी नेशनल रूरल इंप्लायमेंट गारंटी एक्ट यानी मनरेगा के तहत बेहतर काम हुआ है। नवंबर में मनरेगा के तहत 23.60 करोड़ कार्य दिवस तो दिसंबर में 18.8 करोड़ कार्य दिवस का सृजन हुआ है। इसका मतलब यह हुआ कि लगभग 4.8 करोड़ कम कार्य दिवस बने हैं।
लॉकडाउन
यह हाल तो तब है जब देश धीरे-धीरे लॉकडाउन की चपेट से बाहर निकल रहा है और अर्थव्यवस्था बहुत ही धीमी रफ़्तार से ही सही, पटरी पर लौटने लगी है। लेकिन लॉकडाउन की वजह से और उस दौरान बेरोज़गारी की जो भयावह स्थिति थी, उसे किसी ने नहीं भूला होगा।
इस पर भी एक नज़र डालते हैं।
अज़ीम प्रेम जी यूनिवर्सिटी द्वारा सिविल सोसाइटी की 10 संस्थाओं के साथ किए गए सर्वे में यह जानकारी सामने आई है कि लॉकडाउन के दौरान 67 फ़ीसदी लोगों का रोज़गार छिन गया। सर्वे के मुताबिक़, शहरी क्षेत्र में 10 में से 8 लोगों को और गाँवों में 10 में से 6 लोगों को रोज़गार खोना पड़ा है। सर्वे के दौरान 4 हज़ार लोगों से फ़ोन पर बातचीत की गई।
सर्वे के दौरान आंध्र प्रदेश, बिहार, दिल्ली, गुजरात, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के पुणे, ओड़िशा, राजस्थान, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में लोगों से बातचीत की गई। उनसे लॉकडाउन के कारण रोज़गार, आजीविका पर पड़े असर और सरकार की राहत योजनाओं तक उनकी पहुँच को लेकर सवाल पूछे गए।
सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी यानी सीएमआईई के अनुसार, लॉकडाउन से पहले 15 मार्च वाले सप्ताह में जहाँ बेरोज़गारी दर 6.74 फ़ीसदी थी वह तीन मई को ख़त्म हुए सप्ताह में बढ़कर 27.11 फ़ीसदी हो गई।
भयावह आँकड़े
इससे पहले 30 मार्च से 5 अप्रैल के दौरान यानी छह दिन में बेरोज़गारी दर बढ़कर 23.4 प्रतिशत हो गई थी। पूरे मार्च महीने में यह दर 8.7 फ़ीसदी थी। मार्च का यह आँकड़ा 43 महीनों में सबसे ज़्यादा था।
यह तो प्रतिशत में आँकड़ा था। यदि बेरोज़गार लोगों की संख्या की बात की जाए तो संख्या ज़्यादा भयावह है। यह अधिक डरावना इसलिए भी है कि यह नंबर है, जिसे समझने में सहूलियत होती है।
लॉकडाउन शुरू होने के कुछ दिन बाद ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फ़ॉर इनफॉर्मल सेक्टर एंड लेबर स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर संतोष मेहरोत्रा के एक शोध के आधार पर बेरोज़गारी का अनुमान लगाया गया था।
अनुमान था कि कोरोना के बाद जो आर्थिक बदहाली होगी, उस वजह से देश के तकरीबन 13.60 करोड़ लोगों का रोज़गार ख़तरे में पड़ जाएगा। ये असंगठित क्षेत्र के मज़दूर हैं जो अस्थायी तौर पर, ठेके पर छोटी-मोटी नौकरी करते हैं या दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं।
संतोष मेहरोत्रा ने एक अध्ययन में पाया कि 2017-18 में देश में 46.50 करोड़ कामगार थे, जिनमें से लगभग 13.60 करोड़ लोग ग़ैर कृषि क्षेत्र में काम करते थे। ये वे लोग थे जो असंगठित क्षेत्र में ठेके पर अस्थायी नौकरी करते थे। उस समय से अब तक इस संख्या में बहुत का अंतर नहीं आया है।
45 साल की सर्वोच्च बेरोज़गारी
बेरोज़गारी के मुद्दे पर इस सरकार की स्थिति शुरू से ही बुरी रही है। साल 2019 में तो सरकार ने बेरोज़गारी के आँकड़े छुपाए। 'बिज़नेस स्टैंडर्ड' ने एक ख़बर में कहा कि बेरोज़गारी 45 साल में सबसे ऊँचे स्तर पर है।
उस रिपोर्ट के अनुसार, 2017-18 में बेरोज़गारी दर 6.1 फ़ीसदी रही और यह 1972-73 के बाद सबसे ज़्यादा है। इससे पहले वित्तीय वर्ष 2011-12 में बेरोज़गारी दर 2.2 फ़ीसदी रही थी। एनएसएसओ के आँकड़े 5 साल में एक बार आते हैं। संगठन देश भर में सर्वेक्षण कर रोज़गार, शिक्षा, ग़रीबी, स्वास्थ्य और कृषि की स्थिति पर रिपोर्ट देता है।
सरकार ने आँकड़े छिपाए
इसके बाद 31 जनवरी 2019 को राष्ट्रीय मीडिया में नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार का बयान छपा, जिसमें कहा गया था कि 'बिज़नेस स्टैंडर्ड' समेत मीडिया के दूसरे हिस्सों में नेशनल सैंपल सर्वे ऑफ़िस (एनएसएसओ) की जो रिपोर्ट छपी है वह सिर्फ एक ड्राफ़्ट है, अभी यह तैयार हो रही है, तैयार होते ही हम इसे जारी करेंगे।'
नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी यानी सीईओ अमिताभ कान्त ने भी यही दोहराया।
केंद्रीय सांख्यिकी आयोग के पूर्व प्रमुख पीसी मोहनन ने कहा था कि यह ड्राफ़्ट नहीं, फाइनल रिपोर्ट थी। इसी मुद्दे पर मोहनन ने 28 जनवरी को अचानक अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था।
उन्होंने एनडीटीवी से बातचीत में कहा था कि सरकार नौकरियों को लेकर एनएसएसओ (नेशनल सेंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन) की रिपोर्ट जारी नहीं कर रही है। उन्होंने कहा कि एनएसएसओ की रिपोर्ट 5 दिसंबर को आई और आयोग ने इसे मंजूरी दे दी थी, लेकिन इसके बाद भी इसे जारी नहीं किया जा रहा था और इसी कारण से उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा।
तो जिस बेरोज़गारी को नरेंद्र मोदी ने 2014 के आमचुनाव में मुद्दा बनाया, बड़ा वायदा किया, उसके आँकड़े तक उन्हें छुपाने पड़े। उसके बाद भी स्थिति नहीं बदली, बेरोज़गारी बढ़ती रही। रही सही कसर नोटबंदी और उसके बाद लॉकडाउन ने पूरी कर दी। लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था बाहर निकलने लगी तो भी बेरोज़गारी की स्थिति में ख़ास सुधार नहीं हुआ। ऐसे में यदि युवाओं को गुस्सा है तो ताज्जुब की क्या बात है
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