भारत के संविधान का अनुच्छेद 69 भारत के होने वाले उपराष्ट्रपति से एक शपथ की आशा करता है। इसके अनुसार देश के उपराष्ट्रपति को शपथ लेनी होती है जिसमें वह राष्ट्रपति के सामने कहता है कि “मैं…..संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा तथा जिस पद को मैं ग्रहण करने वाला हूं उसके कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करूंगा”। शपथ का एक हिस्सा संविधान के प्रति (न कि किसी दल, व्यक्ति या संगठन के प्रति) ‘श्रद्धा और निष्ठा’ का आश्वासन चाहता है तो दूसरा हिस्सा ‘कर्तव्यों के श्रद्धापूर्वक निर्वहन’ का। लेकिन भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने जिस तरह की टिप्पणी कांग्रेस के बड़े नेता राहुल गांधी पर की है वह उपराष्ट्रपति के पद की गरिमा के खिलाफ है।
राहुल गांधी ने हाउस ऑफ कॉमन्स परिसर, लंदन में ब्रिटिश सांसदों को संबोधित करते हुए कहा था कि लोकसभा में काम कर रहे माइक्रोफोन अक्सर विपक्ष के लिए खामोश कर दिए जाते हैं। इस पर प्रतिक्रिया देते हुए उपराष्ट्रपति ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि “भारतीय संसद में माइक बंद कर दिया गया है… इससे बड़ा कोई झूठ नहीं है। मेरा यह संवैधानिक कर्त्तव्य है कि मैं दुनिया को यह बताऊँ कि भारतीय संसद में ऐसा कभी नहीं हुआ है...”। वो आगे कहते हैं, “अगर मैं देश के बाहर किसी संसद सदस्य द्वारा किए गए इस तरह के आयोजन पर चुप्पी बनाए रखता हूं, जो कि गलत धारणा से प्रेरित है तो मैं संविधान के गलत पक्ष में रहूँगा”। कांग्रेस भी जवाब में संवैधानिक पद और ‘चीयरलीडर’ में अंतर समझा रही है और इन सबके बीच अगर किसी का नुकसान हो रहा है तो वह है संविधान। संविधान सभा में डॉ. भीमराव आंबेडकर ने साफ़ साफ़ शब्दों में कहा था कि “…उपराष्ट्रपति के कार्य सामान्य हैं। उसका मुख्य कार्य राज्यसभा की अध्यक्षता करना है”।(संविधान सभा बहस, भाग-7) लेकिन उपराष्ट्रपति एक ऐसे मामले में उलझ गए जिसका उनसे कोई संबंध नहीं था। सभापति के रूप में उनका मुख्य कार्य है निष्पक्षता अर्थात जनता को कभी न लगे कि वह संविधान के बहाने अपनी उस पार्टी के साथ खड़े हैं जिसने उन्हें उपराष्ट्रपति के लिए दावेदार बनाया था। एक बार उन्होंने कहा था कि “उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि उन्हें उपराष्ट्रपति के लिए चुना जाएगा”, भले ही यह भाव कभी उनके मन में रहा हो लेकिन अब उन्हें पार्टी आधारित कृतज्ञता को त्याग कर संवैधानिक तटस्थता का पालन करना चाहिए।
जहां तक सवाल राहुल गांधी द्वारा कैंब्रिज विश्वविद्यालय में दिए गए लेक्चर का है तो उन्हें यह अधिकार संविधान ने ही दिया है कि वह जब और जहां भी चाहें अपने को अभिव्यक्त कर सकते हैं। सितंबर, 2022 को गुवाहाटी में लोकमंथन-2022 के दौरान उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा था कि “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मोल-तोल से परे है”। ऐसे में वह कब से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के न्यायाधीश बन गए हैं राहुल गांधी द्वारा कैंब्रिज में दिए गए लेक्चर की बात हो या फिर इंडियन जर्नलिस्ट एसोसिएशन और चैटम, लंदन में दिए गए उनके साक्षात्कार की हो, उन्होंने कहीं पर भी ऐसी कोई बात नहीं बोली, जिसे इतने नकारात्मक ढंग से पेश किया जाए, बशर्ते लोगों ने उन्हें पूरा सुना हो। पर यदि बिना सुने ही कोई राय बना ली गई हो जैसा कि इंडियन जर्नलिस्ट एसोसिएशन (IJA) द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान हुआ जिसमें एक जर्नलिस्ट ने कैंब्रिज लेक्चर मामले में सवाल पूछने की बजाय राहुल गाँधी की आलोचना करना शुरू कर दिया। जब राहुल गांधी ने उनसे पूछा कि क्या आपने वह लेक्चर सुना है तब उनका जवाब ‘नहीं’ में था। समय की कमी के चलते उपराष्ट्रपति ने भी यदि न सुना हो तो मैं कुछ बातें ज़रूर उनके ध्यान में ला सकती हूँ।
राहुल गाँधी का कैंब्रिज जज बिजनेस स्कूल में “लर्निंग टू लिसेन इन 21st सेंचुरी” अर्थात लेक्चर की थीम यह थी कि- सभी क्षेत्र के नेताओं को यह सीखना चाहिए कि वह अपनी जनता को कैसे सुनें व उनके साथ संवाद कैसे स्थापित करें उनके प्रेज़न्टैशन की दूसरी स्लाईड में लगभग 11 ख़बरों की कटिंग लगी हुई थीं जोकि कहीं न कहीं आज के भारत की एक तस्वीर सामने लाती हैं। उनमें से कुछ की हेडिंग इस प्रकार थीं- “भारत में पत्रकारों पर हमले क्यों हो रहे हैं”, “चुनावी निरंकुशता: भारतीय लोकतंत्र का अवमूल्यन”, “भारत की बीफ लिंचिंग का मतलब”, “ज़बरदस्त सेंसरशिप: प्रेस क्लब ने संसद में मीडिया पर प्रतिबंध की शिकायत की” ऐसी ही तमाम अन्य खबरों की कटिंग राहुल गाँधी ने शामिल की। उन्होंने यह बात कहने में संकोच नहीं किया कि वर्तमान सरकार ने मीडिया और न्यायपालिका पर लगभग सम्पूर्ण अधिकार कर लिया है। पेगासस जैसे सॉफ्टवेयर और विदेशी सहायता से भारत को निगरानी राष्ट्र बनाने का उन्होंने पुरजोर विरोध करते हुए यह प्रश्न उठाया कि आख़िर क्यों क़ानून प्रवर्तन एजेंसियाँ विपक्षी नेताओं, ग़ैर-सरकारी संगठनों, विरोध में आवाज़ बुलंद करने वाले मीडिया संस्थानों को क़ानून के बहाने उन पर दबाव डाल रही हैं। अल्पसंख्यकों, दलितों और जनजातियों पर हमले क्यों किए जा रहे हैं। ऐसी हर कोशिश क्यों की जा रही है जिससे सरकार और उनके सहयोगियों के प्रति कोई भी ‘असहमति’ न दिखा सके।
जब राहुल गाँधी कहते हैं कि “हम भारतीय लोकतंत्र के मूल ढांचे पर हुए हमले का सामना कर रहे हैं”, तब इसका मतलब यह है कि देश ऐसे परिवर्तन की ओर बढ़ रहा है जहां से लोकतान्त्रिक मूल्यों और स्वतंत्रता संघर्ष के आदर्शों का पीछे छूट जाना लगभग तय है। तीव्र गति से हो रहे ऐसे परिवर्तन के पीछे के कुछ कारणों को राहुल गाँधी अपने लेक्चर के दौरान सामने रखते हैं जैसे- कुछ लोगों के पास ही देश की ज़्यादातर संपत्ति का इकट्ठा हो जाना, मीडिया पर ऐसे सेठों का नियंत्रण हो जाना, उद्योगों में उत्पादन गिरते जाना, बड़े स्तर पर बेरोजगारी, जरूरी सामानों में मूल्यवृद्धि और महिलाओं के खिलाफ होने वाले हिंसक मामले।
राहुल गाँधी का मानना है कि- नरेंद्र मोदी भारत की मौलिक ‘आर्किटेक्चर’ को बर्बाद कर रहे हैं।
इंडियन जर्नलिस्ट एसोसिएशन के कार्यक्रम में पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए राहुल ने कहा कि- भाजपा एक खामोश भारत चाहती है और भारत के मूल में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की जगह ‘अभिव्यक्ति का दमन’ रोपा जा रहा है।
इन बातों में ऐसा कुछ नहीं जो उन्होंने पहले न बोला हो। इससे पहले भी वह इन बातों को संसद से लेकर सड़क तक दोहराते रहे हैं लेकिन मीडिया चूंकि कॉर्पोरेट टूल बन चुका है इसलिए उसे उन मुद्दों पर बहस ज़रूरी नहीं लगती जिससे सरकार असहज हो जाती हो। 4000 किमी, 14 राज्य और 146 दिन तक चली पैदल यात्रा के कवरेज में राष्ट्रीय मीडिया कभी सामने नहीं आया। भारत जोड़ो यात्रा की ‘अन्डर करेंट’ को दबाने के लिए ‘मीडिया ब्लैंकेट’ ने पूरी ताक़त लगा दी लेकिन लाखों भारतीयों की सड़कों पर दौड़ती भीड़ से कैमरे दूर रखना लगभग नामुमकिन था। इसके बावजूद मीडिया ने हर कोशिश की ताकि भारत के बिखरते टेक्स्चर को जोड़ने की हर कोशिश नाकाम की जा सके वो भी सिर्फ इसलिए ताकि विपक्ष के नेता का ऐसा कद न दिखने पाए जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि को पार कर जाए।
इतने बुरे हालातों में यदि कोई नेता विदेश जाकर लोकतंत्र के नाम पर विश्व का ध्यान भारत की ओर आकृष्ट करना चाह रहा है तो इसमें क्या बुराई है जैसा कि राहुल गांधी ने कहा कि भारत में विपक्ष मात्र सत्ताधारी भाजपा से नहीं लड़ रहा है बल्कि उसकी लड़ाई भारत के ‘संस्थागत ढांचे’ के साथ भी है जिसने वर्तमान सरकार के आगे घुटने टेक दिए हैं। संस्थागत ढांचे के पतन की कहानी में भारत की लगभग हर वो संस्था शामिल है जिसपर भारत को एक निष्पक्ष लोकतंत्र बनाए रखने की ज़िम्मेदारी थी।
हिमंत बिस्व सरमा से लेकर सुवेन्दु अधिकारी तक और बीएस येदियुरप्पा से लेकर महाराष्ट्र में शिवसेना (उद्धव) को छोड़ने वाले तमाम विधायकों और सांसदों में से किसी के भी घर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई की टीमें नहीं पहुंचीं लेकिन विपक्ष के नेताओं की गिनती नहीं जिनके घर, परिवार और रिश्तेदारों के यहाँ इन केन्द्रीय एजेंसियों ने छापे न मारे हों। नरेंद्र मोदी के सरकार में आने के बाद से प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा छापा मारने की दर में 600% वृद्धि हुई है। इनमें से शायद ही कोई छापा सत्ता पक्ष के किसी व्यक्ति के खिलाफ पड़ा हो। वित्त मंत्रालय के अंतर्गत काम करने वाली ईडी के द्वारा छापा मारने की खबरों को तो बहुत गहरे अक्षरों में पेश किया जाता है लेकिन यह बताना जरूरी नहीं समझा जाता कि पिछले 17 सालों में ईडी ने जितने लोगों को भी आरोपी बनाया उनमें से मात्र 0.5% को ही अपराधी साबित कर पाई। इस संस्था की काबिलियत के लिए इससे अधिक कुछ और नहीं कहा जा सकता।
पिछले 8-9 सालों में हुए चुनावों में केन्द्रीय निर्वाचन आयोग ने कितनी बार गृहमंत्री, प्रधानमंत्री या भाजपा के अन्य बड़े नेताओं को नोटिस भेजा है जबकि विपक्षी नेताओं को भेजे गए नोटिस की संख्या की गिनती भी करना मुश्किल है। यही कारण है कि भारत चुनावी लोकतंत्र सूचकांक में 108वें स्थान पर है।
नोटबंदी हो या अयोध्या मामला या फिर गुजरात दंगों को लेकर की गई अपीलें हों या फिर पेगासस और चुनावी बॉन्ड्स पर सर्वोच्च न्यायालय का रुख, कुछ भी ऐसा नहीं हुआ जिसने केंद्र सरकार को जरा सा भी परेशानी में डाला हो।
2015-16 के बाद से शायद ही कोई निर्णय केंद्र की आकांक्षा के विरुद्ध आया हो, जहां कहीं भी सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त रुख अपनाने की कोशिश की वहाँ सरकार ने अपनी मर्यादा तक का ख्याल नहीं किया, संवैधानिक पदों पर बैठे लोग बिना आमंत्रित किए सर्वोच्च न्यायालय की आलोचना के लिए हाजिर हो गए। NJAC के मामले को लेकर जिस तरह कानून मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और उपराष्ट्रपति ने टिप्पणियाँ की हैं उनसे साफ़ है कि सरकार के लिए सर्वोच्च न्यायालय तभी तक सर्वोच्च है जब तक निर्णय उसके पक्ष में होंगे। अनुसूची 10 का इस्तेमाल करके जिस तरह जनादेश का उत्पीड़न किया गया है वह सबके सामने है, संविधान के रास्ते संविधान को नष्ट किया जा रहा है और सर्वोच्च न्यायालय के पास अभी तक कुछ ऐसा ठोस नहीं जिससे इन गतिविधियों को रोका जा सके।
मीडिया के एक बड़े हिस्से में रिलायंस उद्योग का स्वामित्व है तो बचे कुछ हिस्से में गौतम अडानी का, जिसकी वजह से मीडिया में कुछ भी ऐसा नहीं चल पाता जो सरकार की ‘इमेज’ को नुक़सान पहुंचाता हो। इसके साथ ही चुनावी बॉन्ड्स से हो रही बेतहाशा कमाई और विज्ञापन पर अरबों खर्च करके सरकार अपने पक्ष में नैरेटिव बनाने में कामयाब हो जाती है।
गौतम अडानी ने 100 बिलियन डॉलर के जनता के धन को उड़ने दिया, लोगों की सालों की मेहनत की कमाई नष्ट हो गई, ईडी की रेड तो छोड़िए शायद फोन भी नहीं गया होगा गौतम अडानी के पास। दो चार उद्योगपतियों को ही प्रश्रय देने के कारण भारत आर्थिक स्वतंत्रता सूचकांक-2023 में बुरी स्थिति में है। हेरिटेज फाउंडेशन द्वारा जारी किए जाने वाले इस सूचकांक में भारत दुनिया का 131वें नंबर का आर्थिक रूप से मुक्त देश है।
ऐसे हालात में यदि कोई व्यक्ति बाहर जाकर एक लेक्चर में यह कह देता है कि भारत में हो रहे लोकतंत्र के क्षरण को बचाने के लिए दुनिया के तमाम मीडिया संस्थानों, एनजीओ और बुद्धिजीवियों को आवाज उठानी चाहिए तो क्या इसमें राष्ट्र की एकता ख़तरे में पड़ गई क्या राहुल गांधी ने यूरोप और अमेरिका से अपनी अपनी सेनाएँ भेजने का आग्रह किया था या यह कहा था कि सभी देश भारत से अपने राजनयिक संबंध तोड़ लें या यह कहा था कि भारत के प्रधानमंत्री के सम्मान के खिलाफ भाषणबाजी करें उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा जो भारत के सम्मान के खिलाफ़ हो।
भारत सरकार की आलोचना भारत में या भारत के बाहर की जा सकती है, और इसमें कहीं से भी देश की एकता को कोई ख़तरा नहीं है। जो बात भाजपा और कुछ भारतीय बुद्धिजीवियों को समझ नहीं आ रही है वह यह है कि ‘भारत की आलोचना’ और ‘भारत सरकार की आलोचना’ एक ही बात नहीं है।
भारत सरकार हमेशा आवश्यक रूप से विपक्षियों का प्रतिनिधित्व नहीं करती। इसलिए यह ज़रूरी है कि जो लोग वर्तमान सरकार से संतुष्ट नहीं हैं वह सरकार की आलोचना करें, यह आलोचना देश के बाहर हो या अंदर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। सरकार की विदेश नीति, आर्थिक नीति और संसद में बनने वाले तमाम कानून आवश्यक नहीं कि विपक्ष को साथ लेकर ही बनाए गए हों, ऐसे में उनकी आलोचना स्वाभाविक है। हाँ यदि कोई नेता ‘भारत दैट इज इंडिया’ की आलोचना करता है, भारत के संवैधानिक मूल्यों की आलोचना करता है, भारत के स्वतंत्रता संघर्ष पर अमर्यादित टिप्पणी करता है तो ज़रूर माना जा सकता है कि यह भारत की आलोचना है। पर राहुल गांधी ने ऐसा कुछ नहीं किया।
जिस बात को लेकर भारत के मीडिया को कुछ नहीं कहना है और जिस पर उपराष्ट्रपति जी को भी शायद कुछ नहीं कहना है उस पर राहुल गांधी ने तीखे शब्दों का इस्तेमाल किया है जोकि भाजपा और केंद्र सरकार को चुभ रहे हैं। राहुल गाँधी बहुत ही मौलिक प्रश्न उठा रहे हैं। उनका कहना है कि अगर स्वयं भारत के प्रधानमंत्री टीवी पर आकर कह देते हैं कि भारत-चीन सीमा से भारत में कोई चीनी नहीं घुसा, भारत की भूमि पर किसी का कब्जा नहीं है, जबकि यह सर्वविदित है कि चीन ने बीते कुछ वर्षों में लगभग 2 हजार वर्गमीटर भारतीय जमीन पर कब्जा कर लिया है, तो क्या इसका मतलब चीनी सेना को फिर से भारत की धरती पर आमंत्रण देना नहीं है क्या ऐसा नहीं प्रतीत हो रहा है कि ऐसा आमंत्रण भारत के प्रधानमंत्री की ओर से आ रहा है भारत के प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए ऐसे भाषण से भारत-चीन बातचीत पर क्या असर पड़ा होगा क्या चीनियों ने यह नहीं कहा होगा कि आपके पीएम ही कह रहे हैं कि हमने आपकी जमीन पर कब्जा नहीं किया है
रही बात राहुल गाँधी द्वारा चीन की, की गई कथित तारीफ की तो यह भी मीडिया में फैलाया गया एक भ्रम है। जिसने भी लेक्चर पूरा सुना होगा उसने जाना होगा कि राहुल गाँधी खुलेआम चीनी विकास मॉडल की आलोचना कर रहे हैं, जहां उन्होंने चीन की तारीफ में कुछ कहा है वह मात्र एक प्रसंग है, उनका विचार नहीं, जिसका जिक्र एक चीनी अधिकारी ने उनसे किया था। और चीनी मॉडल की आलोचना का यह काम उन्होंने अपने UK टूर के दौरान लगभग हर मंच पर किया है। उन्होंने साफ कहा है कि चीन का प्रशासन, चीनी सेना (PLA) द्वारा चलाया जा रहा है, वहाँ आम जनता के बीच नेता नहीं चीनी सेना जाती है। राहुल गांधी इसे लोकतंत्र के खिलाफ मानते हैं और चीन का मुकाबला करने के लिए, चीन की तरह उत्पादन केंद्र बनाने के लिए नई बहस और एक ऑल्टर्नेटिव (वैकल्पिक) मॉडल की वकालत करते नजर आते हैं न कि चीन की प्रशंसा। उपराष्ट्रपति अपने संवैधानिक दायरे से बाहर निकलकर आलोचना तो कर बैठे लेकिन यह भूल गए कि राहुल गांधी के खिलाफ बोलकर उन्होंने अपने ही पद की गरिमा को चोट पहुंचाई है। राहुल गांधी लोकसभा के सदस्य हैं और इस नाते जगदीप धनखड़ उनके खिलाफ विशेषाधिकार प्रस्ताव की भी अनुमति देने की हालत में नहीं है। ऊँचा से ऊँचा संवैधानिक पद भी एक ‘लगाम’ से बंधा है। लगाम टूटते ही पद से मिलने वाला सम्मान और उस पद की गरिमा स्वयं समाप्त हो जाती है, इससे बचना चाहिए।
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