किसकी वजह से सुलग रही है अलगाववाद की आग ? 

दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ओले के साथ हुई बारिश ने अप्रैल में अचानक जाते जनवरी का अहसास करा दिया है, लेकिन ‘हिंदू राष्ट्र’ की माँग सरगर्म करने में जुटे लोगों पर इस अचानक आयी ठंड का कोई असर नहीं है। नोएडा की चौहद्दी वाली बहुमंज़िला सोसायटियों के पार्कों में आरएसएस की नियमित शाखाओं से सुबह होना अब पुरानी बात हो गयी है। नयी बात ये है कि लोगों से अपनी-अपनी बालकनी में ‘धर्म-ध्वजा’ फहराने की अपील की जा रही है। इसके लिए बाक़ायदा व्हाट्सऐप अभियान चल रहे हैं। इन संदेशों के केंद्र में है ‘हिंदू राष्ट्र’ जिसे बनाना अब सबसे बड़ा लक्ष्य है। मोदी सरकार की उपलब्धियों को लेकर उठे हर सवाल का जवाब बीजेपी और संघ के कार्यकर्ताओं अब इसी नारे से दे रहे हैं।

ठीक इसी समय पंजाब को लेकर चिंताजनक ख़बरें आ रही हैं। यह देखना वाक़ई तकलीफ़ेदह है कि जिस पंजाब में तमाम कुर्बानियों के बाद ‘शांति’ एक स्थायी चरण में प्रवेश कर गयी थी वहाँ फिर से खालिस्तान का मसला उठ गया है। ‘वारिस पंजाब दे’ के मुखिया अमृतपाल सिंह खालसा को भिंडरावाले का नया रूप बताया जा रहा है जिसने उन ख़ूनी दिनों की याद ताज़ा कर दी है जब खालिस्तानी उग्रवादियों ने गुरुओं की इस धरती का चैन छीन लिया था।

हैरानी की बात ये है कि अमृतपाल सिंह खालसा को कुछ समय पहले तक कोई जानता भी नहीं था। न ही वह भिंडरावाले की तरह दमदमी टकसाल जैसी किसी सिख धार्मिक संस्था का प्रमुख ही था, लेकिन अचानक ही वह अलगाववादियों का पोस्टरब्वाय बन गया। उधर, कट्टरपंथी सिख संगठन दल खालसा ने जी-20 देशों के प्रतिनिधियों की हालिया अमृतसर यात्रा के पहले पत्र लिखकर कहा है कि ‘राज्य में चुनावी घटनाक्रम के बावजूद पंजाब के लोग आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए संघर्ष में लगे हुए हैं।’ यानी इस मसले को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाने की कोशिश की जा रही है।

तो क्या नोएडा में नज़र आ रही ‘हिंदू राष्ट्र’ और पंजाब में नये सिरे से उठी खालिस्तान की माँग के बीच कोई रिश्ता है ग़ौर से देखिए तो यह रिश्ता साफ़ नज़र आएगा। खालिस्तान हो या द्रविड़नाडु, इस तरह की तमाम माँगों का इतिहास आज़ादी के पहले शुरू होता है लेकिन भारतीय संविधान ने क्षेत्रीय स्वायत्तता और आत्मसम्मान की गारंटी देकर धीरे-धीरे इन माँगों को हाशिये पर डाला।


असम समेत उत्तर-पूर्व के कई राज्यों में चल रही अलगवावादी माँगों को इसी के ज़रिए कमज़ोर पड़ते देखा गया है। दक्षिण भारत में तमिलों के लिए अलग द्रविड़नाडु (द्रविड़ों का देश) बनाने की माँग तो औपचारिक रूप से 1963 में यानी आज़ादी के 16 साल बाद छोड़ी गयी थी।

ज़ाहिर है, इन अलगवावादी आंदोलनों के कमज़ोर पड़ने का बड़ा कारण जनता से समर्थन न मिलना था। सरकार हिंसक आंदोलन को हथियारों की ताक़त से दबा सकती है, लेकिन असल जीत तभी मिलती है जब जनमानस अलगाववाद के विचार के ख़िलाफ़ हो जाए। खालिस्तान से लेकर द्रविड़नाडु तक के मामले में यही हुआ और इसकी वजह थी भारत का ‘सेक्युलर’ संविधान। 

धर्म के आधार पर भारत का विभाजन ज़रूर हुआ था लेकिन भारत किसी पाकिस्तान की प्रतिक्रिया में नहीं बना था। आज़ादी की पूरी लड़ाई ही इस विचार के साथ लड़ी गई थी कि नये भारत में धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा।


हर धर्म के लोगों ने इस सपने के लिए ख़ून बहाया था और सभी को इसका फल चखना था। आज़ादी के आंदोलन के नायकों ने समतावादी सेक्युलर संकल्पों में गूँथकर नये भारत के संविधान का निर्माण किया जहाँ धर्म, जाति, क्षेत्र की भिन्नता के बावजूद हर नागरिक बराबर था।

बीसवीं सदी के चौथे दशक में द्रविड़नाडु के प्रणेता ई.वी.रामास्वामी पेरियार भारत को तीन भागों में बाँटने का विचार रख रहे थे। पाकिस्तान के अलावा आर्यलैंड (हिंदुस्तान) और द्रविणनाडु (द्रविड़ों का देश)। लेकिन कांग्रेस ने कभी धर्म या क्षेत्रीयता को राष्ट्रीयता का आधार नहीं माना और द्रविड़ आंदोलन के तमाम ज़ोर के बावजूद आज़ादी के पहले और बाद के भी डेढ़ दशक तक तमिलनाडु की जनता उसे ही चुनती रही।

ग़ौर करने की बात ये भी है कि आज़ादी के आंदोलन के केंद्र में केवल ‘ब्रिटिश भारत’ था। आज़ादी का सवाल भी उसी से जुड़ा था। प्रिंसली स्टेट्स को स्वतंत्र होने या पाकिस्तान से मिलने का विकल्प दिया गया था। लेकिन वे अगर ऐसा नहीं कर पाये तो वजह भारत सरकार की सैनिक ताक़त से ज़्यादा जनता के बीच गहरे पैठे कांग्रेस का आंदोलन था जिसने कश्मीर और कन्याकुमारी के शोक को एकसार करके ‘राष्ट्रीय शक्ति’ में बदल दिया था। इससे टकराने की हिम्मत किसी रियासतदार के पास नहीं थी। यहाँ यह भी याद करना ज़रूरी है कि आजकल जो संगठन हिंदू राष्ट्र की मुहिम चला रहे हैं वे तब रियासतों के पक्ष में थे। उनके लिए सैकड़ों स्वतंत्र रियासतों में बँटा भारत भी एक राष्ट्र था। यही वजह है कि जब त्रावणकोर रियासत ने स्वतंत्रता की घोषणा की तो सावरकर ने बधाई संदेश भेजा था।

आजकल हिंदू राष्ट्र’ को लेकर जो हवा चलायी जा रही है, वह उसी संवैधानिक संकल्प को तोड़ रही है जिसके सामने तमाम अलगाववादी विचार अपनी नैतिक आभा खो बैठे थे। ‘हिंदू राष्ट्र’ के नाम पर लगाया जाने वाला हर नारा खालिस्तान समेत तमाम अलगाववादी आंदोलन को तर्क मुहैया कराता है। जो आज पंजाब में दिख रहा है, वह कल उत्तर पूर्व के राज्यों से लेकर तमिलनाडु तक में दिख सकता है। याद कीजिए बीते साल जुलाई में पूर्व केंद्रीय मंत्री ए.राजा ने यह तमिलनाडु की स्वायत्ता पर केंद्र के हमले का आरोप लगाते हुए चेताया था कि हमें ‘अलग तमिलनाडु की माँग को मजबूर न किया जाए।’

पंजाब में शांति स्थापित करने की राह में प्रधानमंत्री रहते हुए इंदिरा गाँधी और मुख्यमंत्री रहते हुए सरदार बेअंत सिंह ने अपनी शहादत दी थी। न जाने कितने राजनीतिक कार्यकर्ता और पुलिस या सुरक्षाबल के जवानों ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। इस फ़ौलादी इरादे के सामने खालिस्तान की माँग करने वालों को देश छोड़कर भागना पड़ा। ऐसे में इस माँग का नये सिरे से उठना एक ऐतिहासिक नाकामी है।

हद तो ये है कि जिस केंद्र सरकार पर देश को अखंड रखने की ज़िम्मेदारी है उस पर क़ाबिज़ बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता ही इसे वैचारिक ख़ुराक़ मुहैया करा रहे हैं। देश के कई शहरों में संघ और बीजेपी से जुड़े संगठन ‘हिंदू राष्ट्र’ की माँग को लेकर रैलियाँ निकाल रहे हैं। ऐसा लगता है कि तमाम मोर्चों पर नाकाम हो चुकी मोदी सरकार 2024 में ‘हिंदू राष्ट्र’ के नाम पर बड़ा ध्रुवीकरण कराना चाहती है। लेकिन यह आग से खेलना है।

(लेखक कांग्रेस से जुड़े है) 



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