क्या प्रेस की आजादी और RTI को खोखला कर रही है सरकार?

‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’(RSF) संस्था द्वारा जारी किए जाने वाले विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक-2022 में भारत को 180 देशों के सामने 150वां स्थान मिला था। भारत में प्रेस स्वतंत्रता में यह निम्नस्तर अचानक नहीं आया। भारत 2016 में मिले 133वें स्थान से लगातार नीचे गिरता रहा। 2018 में 138वां, 2019 में 140वां, 2020 और 2021 में 142वां स्थान यह बताने में सक्षम हैं कि भारत में प्रेस की आजादी पर निरन्तरता के साथ प्रहार हो रहा है। RSF की 2022 में आई रिपोर्ट में यह कहा गया कि भारत पत्रकारों के लिए दुनिया के सबसे खतरनाक स्थानों में से एक है। 2021 में भारत उन तीन देशों में शामिल था जहां दुनिया भर में सबसे ज्यादा पत्रकारों की हत्या हुई थी। फ्रीडम हाउस संस्था द्वारा जारी किए जाने वाले आँकड़े के अनुसार भारत नागरिक स्वतंत्रता के मामले में इतना पीछे है कि इसे ‘आंशिक रूप से मुक्त’ देश के रूप में ही चिन्हित किया जा सका। 

हमेशा की तरह भारत सरकार ने प्रेस स्वतंत्रता से संबंधित इन रिपोर्ट्स को मानने से इंकार कर दिया है। लेकिन मलयालम चैनल ‘मीडिया वन’ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के हाल के निर्णय ने, भारत में वर्तमान समय में प्रेस के  स्वतंत्रता की स्थिति और भारत के संविधान की उद्घोषणा दोनो को स्पष्ट कर दिया है। 31 जनवरी 2022 को केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार ने मीडिया वन चैनल के प्रसारण अधिकार को रोक दिया और प्रसारण संबंधी लाइसेन्स के नवीनीकरण से इंकार कर दिया। 8 फरवरी 2022 को पहले केरल उच्च न्यायालय के एक न्यायधीश की पीठ ने और 2 मार्च 2022 को दो न्यायाधीशों की खंडपीठ ने मंत्रालय द्वारा थोपे गए प्रतिबंध को बरकरार रखा। 

केरल उच्च न्यायालय ने प्रतिबंध का आधार भारत सरकार की उस ‘सील बंद’ रिपोर्ट को बनाया जिसके अनुसार गृह मंत्रालय ने आईबी रिपोर्ट्स के हवाले से यह माना था कि मीडिया वन चैनल ‘पब्लिक ऑर्डर और राज्य की सुरक्षा के लिए खतरा’ है। मीडिया वन ने इस निर्णय के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। 15 मार्च 2023 को अपने एक अंतरिम आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने चैनल से प्रतिबंधों को हटा दिया और इस संबंध में 5 अप्रैल 2023 को सम्पूर्ण निर्णय सुनाते हुए मुख्य न्यायधीश डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रतिबंध संबंधी आदेश को रद्द कर दिया और मंत्रालय को यह निर्देश दिया कि वह चैनल को 4 सप्ताह के अंदर नया लाइसेन्स जारी करे। 

न्यायालय ने गृह मंत्रालय के उन दावों को सिरे से नकार दिया जिसमें चैनल को मात्र इसलिए ‘सत्ता-विरोधी’ कह दिया गया क्योंकि चैनल सरकार द्वारा लाए गए CAA-NRC कानून के खिलाफ रिपोर्टिंग कर रहा था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार और उसकी नीतियों के खिलाफ अभिव्यक्ति करने से प्रेस को रोकना वास्तव में यह कहने का प्रयास है कि प्रेस को हमेशा सरकार की नीतियों के साथ खड़ा रहना चाहिए। 

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि किसी इस्लामिक संगठन का चैनल के साथ जुड़ाव और राष्ट्रीय सुरक्षा में कोई संबंध नहीं है जब तक कि राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरे को लेकर कोई ठोस सबूत न उपलब्ध हों साथ ही सरकार को यह जानना चाहिए कि ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के दावे हवा में नहीं किए जा सकते’। न्यायालय ने कहा कि किसी चैनल को अपने स्वतंत्र विचारों का प्रयोग करने के कारण मीडिया लाइसेन्स से वंचित करना प्रेस की आजादी को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा।

केरल उच्च न्यायालय द्वारा मीडिया वन को राहत देने से इंकार करने के पीछे भारत सरकार द्वारा पेश की गई ‘सील बंद’ रिपोर्ट थी। भारत सरकार पिछले कुछ वर्षों से लगातार राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर ऐसी रिपोर्ट्स विभिन्न न्यायालयों में पेश करती रही है। इन सील बंद रिपोर्ट्स को पढ़ने और जानने का अधिकार भी अपीलकर्ता को नहीं दिया जाता है। और अंधेरे में सूचना के अभाव में सरकार के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ने वाला नागरिक स्वयं को ठगा महसूस करता है। सील बंद रिपोर्टों के माध्यम से नागरिक अधिकारों की ठगी को रोकने की जरूरत है। शायद इसीलिए मुख्य न्यायधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने मीडिया वन मामले में इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाते हुए कहा कि “उच्च न्यायालय ने सिक्योरिटी क्लियरेन्स के लिए इंकार करने के पीछे किसी कारण का हवाला नहीं दिया। इस बात की कोई व्याख्या नहीं है कि बावजूद इसके कि उच्च न्यायालय ने यह माना कि सील बंद रिपोर्ट में ऐसी कोई बात नहीं थी जिसमें इतना वजन हो कि उसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा माना जाए, आखिर क्यों ऐसी रिपोर्ट का आश्रय लिया गया 

एकल न्यायधीश और खंडपीठ दोनो द्वारा सील बंद रिपोर्ट को महत्व दिए जाने से अपीलकर्ता का उपचार का अधिकार, जोकि संविधान का हृदय और आत्मा के साथ साथ संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना जाता है, उसे एक सूखा चर्मपत्र बनाकर रख दिया गया...”।वास्तव में इस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने सील बंद प्रक्रिया को नैसर्गिक न्याय के खिलाफ पाया। सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी, लॉर्ड कर्जन के जमाने से चले आ रहे ऑफिसियल सीक्रेट अधिनियम जो गोपनीयता की आड़ में जनता को सूचना और इस तरह न्याय के अधिकार से लगातार वंचित करता रहा है, उस मानसिकता को किनारे करने के लिए आवश्यक है।   

उच्चतम न्यायालय ने मीडिया वन को लेकर कहा कि "प्रेस का कर्तव्य है कि वह सत्ता से सच बोले और नागरिकों को जटिल तथ्यों के बारे में सूचित करे”।इसके साथ ही न्यायालय ने चिंता जताते हुए कहा "राज्य नागरिकों को उनके अधिकारों से वंचित करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा की दलील का उपयोग कर रहा है। यह ‘कानून के शासन’ के साथ असंगत है...”

हमेशा सरकार का समर्थन करने वाली, सरकार के पीछे पीछे चलने वाली प्रेस की आशा करना देश और संविधान के साथ धोखा है। प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक और फ्रीडम हाउस के आंकड़ों में भारत सरकार के इन्ही रवैयों की झलक मिलती है। जबकि भारत का संविधान अपने अस्तित्व में आने के समय से ही प्रेस की आजादी का पुरजोर समर्थक रहा है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)क जोकि एक मौलिक अधिकार है, भारतीय नागरिकों को ‘वाक्-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का एक ठोस आश्वासन देता है जिसे सिर्फ युक्ति युक्तता के आधार पर ही अस्थायी रूप से नकारा जा सकता है। और यह युक्तियुक्तता भी अंतिम रूप से न्यायालय द्वारा ही निर्धारित की जा सकेगी न कि संसद के द्वारा।तत्कालीन मद्रास राज्य ने ‘मेंटेनेंसऑफ पब्लिक ऑर्डर ऐक्ट 1949’ का इस्तेमाल करते हुए ‘क्रॉस रोड’ पत्रिका के मद्रास में बिकने पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसे लेकर रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य (1950) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पत्रिका को राहत देते हुए कहा कि सभी लोकतान्त्रिक संस्थाओं की मजबूती के लिए प्रेस की स्वतंत्रता सबसे आवश्यक तत्व है। 

जिस तरह सरकार आज पहले से ही तय कर रही है कि मीडिया को किस कानून या नीति का विरोध नहीं करना है(जैसा की मीडिया-वन मामले में किया गया) वह एक किस्म की प्री-सेन्सर्शिप ही मानी जानी चाहिए। ब्रजभूषण बनाम दिल्ली राज्य और बाद में वीरेंद्र बनाम पंजाब राज्य के मामले में न्यायालय ने इस प्रवृत्ति का जबरदस्त विरोध किया है।


वीरेंद्र बनाम पंजाब मामले(1957) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “किसी समाचार पत्र को तत्कालीन महत्व के विषय पर अपने विचार प्रकाशित करने से रोकना वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक गंभीर अतिक्रमण है”। क्या मीडिया वन मामले में सरकार द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा के बहाने, सील बंद अपारदर्शी अनुशंसाओं की आड़ में सरकार के प्रति आलोचनात्मक रिपोर्टिंग को हतोत्साहित करने के लिए लाइसेन्स के नवीनीकरण को रोकना अनुच्छेद 19(1)क का अतिक्रमण और सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न पूर्व निर्णयों का उल्लंघन नहीं है

भारत में वर्तमान समय में मौलिक प्रश्न सिर्फ प्रेस की आजादी का नहीं बल्कि सम्पूर्ण अनुच्छेद-19(1)क के औचित्य को ही नष्ट करने का है। सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005 का आधार अनुच्छेद-19(1)क ही है। अर्थात अभिव्यक्ति और वाक् स्वातंत्रय के माध्यम से ही सूचना के अधिकार अर्थात ‘जानने के आधिकार’ का प्रतिपादन किया गया। 2019 में सूचना के अधिकार अधिनियम में संशोधन करते हुए केंद्र सरकार ने सूचना आयुक्तों की सेवा शर्तों में संशोधन करके इसे सरकार के अधीन बना दिया। जब वक्त था कि पुराने कानून को और मजबूत किया जाता, सूचना आयुक्तों को संवैधानिक संस्था बनाया जाता कानून द्वारा प्रदत्त उनके निश्चित सेवा अवधि को ‘सरकार के अधीन’ कर दिया गया। 

एक तरह से नरेंद्र मोदी सरकार ने एक मूल अधिकार से संबंधित व्यवस्था को कमजोर और लाचार बना दिया। सेक्रेटरी जनरल, उच्चतम न्यायालय बनाम सुभास चंद्र अग्रवाल मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सूचना के अधिकार का स्रोत संसद का अधिनियम नहीं बल्कि अनुच्छेद-19(1)क के रूप में मौलिक अधिकार है। लेकिन यह मौलिक अधिकार न्यायालयों की दीवारों में अपना सर टकरा टकरा के मरणासन्न अवस्था में आ चुका है।

हाल में गुजरात उच्च न्यायालय ने न सिर्फ वर्तमान प्रधानमंत्री की डिग्री के खुलासे को रोका बल्कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल जिन्होंने इस संबंध में सूचना मांगी थी उन पर एक जुर्माना भी लगा दिया। शायद गुजरात उच्च न्यायालय ने ध्यान से PUCL बनाम भारत संघ(2004) के ऐतिहासक फैसले को नहीं पढ़ा जिसमें सर्वोच्च न्यायालय की 3 सदस्यीय खंडपीठ ने एक मत से निर्णय लेकर फैसला किया था कि मतदाता के सूचना का अधिकार एक मूल अधिकार है। अर्थात अपने जनप्रतिनिधि के संबंध में उसकी संपत्ति, आपराधिक मामले और शैक्षणिक योग्यता संबंधी सही जानकारी पाने का अधिकार एक मूल अधिकार है। एक उच्च न्यायालय जो अभिलेख न्यायालय भी होता है आखिर कैसे मूल अधिकारों के सम्पादन के बीच में आ सकता है 

इसी मामले में न्यायमूर्ति एम वी शाह ने कहा था कि “मतदान के अधिकार का कोई अर्थ नहीं जबतक कि नागरिक को अपने उम्मीदवार के पूर्ववृत्त की पूर्ण जानकारी नहीं है”। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शैक्षणिक योग्यता को लेकर लगातार प्रश्न उठ रहे हैं। लगातार इस बात को लेकर सवाल हैं कि उन्होंने चुनाव आयोग में अपनी शैक्षणिक योग्यता सच्चाई के साथ प्रदर्शित की है या नहीं 140 करोड़ देश वासियों का प्रधानमंत्री  यदि अपनी सच्चाई को लेकर घेरे में है तो या तो उसे खुद आकर इसका जवाब देना चाहिए या फिर भारतीय संस्थाओं को इतनी रीढ़ दिखानी चाहिए कि वह उनकी जानकारी को सार्वजनिक करें। ऐसा न करना संस्थाओं और प्रधानमंत्री पर अविश्वास पैदा कर रहा है जोकि खतरनाक है और देश को अस्थायित्व की ओर धकेलने वाला है।

जब देश की सर्वोच्च संस्थाओं द्वारा बनाए जाने वाले कानूनों का कार्यान्वयन पद और प्रतिष्ठा के आधार पर किया जाने लगता है तो संस्थाएं और कानून अपने औचित्य को खोती जाती हैं। उच्च पदों विशेषतया सरकार में शामिल लोगों के खिलाफ कानून का नर्म और लाचारी भरा रवैया एक देश को गरीब और संस्थाओं को कमजोर बनाता रहता है।

यदि न्यायालय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी डिग्री की मांग को वैधता प्रदान कर देता तो देश का लोकतंत्र मजबूत होता। ज्यादा से ज्यादा उनकी डिग्रियां गलत निकल सकती थीं, हो सकता है इसकी वजह से उन्हे प्रधानमंत्री का पद खोना पड़ता, यह देश बहुत बड़ा और समृद्ध है, वह किसी दूसरे प्रधानमंत्री की तलाश कर लेता। लेकिन इस प्रक्रिया से देश की कानून व्यवस्था के बारे में जो संदेश जाता वह हजारों अपराधियों को फांसी देने के बाद भी पैदा होना मुश्किल था। संदेश साफ होता कि कोई कितना भी शक्तिशाली हो, किसी में चुनाव जीतने और लड़ने का कितना भी हुनर क्यों न हो वह अंततः देश के संविधान और कानून के अंतर्गत ही वर्चस्व में रह सकता है अन्यथा नहीं!

पीएम केयर फंड से संबंधित सूचना को सार्वजनिक करने को लेकर जिस तरह प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री न्यायालयों में अड़े हुए हैं और सूचना नहीं देना चाहते जबकि उसमें आया पैसा देश के सार्वजनिक हित के लिए पीएम द्वारा मांगा गया था। वह पैसा पीएम ने नरेंद्र मोदी की हैसियत से नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठकर मांगा था इसलिए यह बिल्कुल जायज़ है कि आम नागरिकों को यह पता चले कि वह पैसा कहाँ खर्च किया गया।


कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रमुख औद्योगिक घरानों द्वारा दिया गया पैसा पार्टी द्वारा व्यक्तिगत कार्यों में लगा दिया गया है और इसका लाभ उन चुनिंदा औद्योगिक घरानों को दे दिया गया है जिन्होंने पीएम केयर फंड में एक बड़ी राशि दान में दी थी। इन सभी संदेहों से पार जाने के लिए सूचना के अधिकार अधिनियम को ताकत दी जानी चाहिए। चूंकि यह एक मौलिक अधिकार है इसलिए इस अधिनियम को ताकत और संरक्षण देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी मिलनी चाहिए। स्वतंत्र प्रेस का अधिकार और सूचना का अधिकार एक अनुत्क्रमणीय अभिक्रिया द्वारा आपस में घुले हुए हैं जिन्हे अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। यह दोनो अधिकार मौलिक अधिकार के टैग के अंतर्गत सदा के लिए भारतीय संविधान में सुरक्षित कर दिए गए हैं। 

मीडियावन के प्रसारण के अधिकारों को हवा-हवाई राष्ट्रीय सुरक्षा की अवधारणा के माध्यम से छीनने की कोशिश करना, जब एक असहज करने वाली सूचना को प्रधानमंत्री से मांगे जाने पर आर्थिक जुर्माने द्वारा हतोत्साहित करके इंकार कर देना और पीएम की कुर्सी के अंतर्गत मांगे गए अरबों के फंड पर कानून की अंतहीन चुप्पी यह बताने के लिए पर्याप्त है कि भारत का लोकतंत्र स्वयं ही स्वयं को घायल कर रहा है। 

एक घायल, बेचैन और लंगड़े लोकतंत्र में गरीबों और वंचितों को न्याय मिल पाना लगभग एक असंभव सी संकल्पना है। ऐसे में जहां कहीं भी न्याय होता दिखे उसे अपवाद मानने पर कोई बुराई नहीं। लोकतंत्र में जब तक संस्थाएं सरकार की गलतियों के खिलाफ नहीं खड़ी होतीं उन्हे लोकतान्त्रिक संस्था कहना भी अनुचित ही होगा।


नॉर्डिक देश स्वीडन में 1766 में प्रेस स्वतंत्रता से संबंधित कानून आ गया था। मतलब यह है कि वहाँ मीडिया 1766 से स्वतंत्रता से अपने देश की समस्याओं को उठा रहा है और सरकार के खिलाफ मुखर होकर बोल रहा है। जनता तक सही बात पहुँचा रहा है जो सीधे सरकारों पर यह दबाव डालती हैं कि वहाँ किसी भी समूह के खिलाफ कोई विभेद न हो, शिक्षा और स्वास्थ्य की अवसंरचना इतनी हो कि लोगों को पैसों की कमी की वजह से अपनों को न खोना पड़े। तब जाकर स्वीडन आज दुनिया का वह देश बन पाया है जो पर्यावरण सहित तमाम सामाजिक आर्थिक सूचकांकों में निरन्तरता से दुनिया के टॉप देशों में है। जबकि भारत में सरकार की मजबूती मीडिया को नियंत्रित करने की उनकी योग्यता से निर्मित हो रही है। 

सिर्फ सरकार तय कर रही है कि किस मुद्दे को जन मुद्दा बनाया जाए। सरकार तय करती है कि मुफ़्त अनाज देना लिन्चिंग को रोकने से ज्यादा अहम है, यह सरकार तय करती है कि कब वर्षों से एक जगह पर स्थित मंदिर और मस्जिदों में टकराव पैदा करना है, क्योंकि यह पैंतरा एक बहुआयामी गरीबी और ऐतिहासिक बेरोजगारी झेल रहे भारत जैसे देश में चुनाव जीतने और सरकार बनाने के लिए सर्वोत्तम तरीका है।


इंडियन एक्स्प्रेस न्यूजपेपर्स मुंबई बनाम भारत संघ(1984) के मामले में जस्टिस वेंकटरमैया ने कहा था कि"आज की मुक्त दुनिया में, प्रेस की स्वतंत्रता सामाजिक और राजनीतिक संपर्क का केंद्र है…लोक प्रशासन पर प्रभाव डालने वाले समाचारों और विचारों के प्रसारक होने के नाते समाचार पत्र अक्सर ऐसी सामग्री छापते हैं जो सरकारों और अन्य अधिकारियों के लिए सुखद नहीं होती है।" मीडिया वन मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को इसी समझ के रूप में देखा जाना चाहिए। अखबार और मीडियाके अन्य माध्यम तभी देश के लोकतंत्र को सुरक्षित, संरक्षित और व्यवस्थित रख सकते हैं जबकि इनके द्वारा प्रसारित की जाने वाली सामग्री सरकार को सुखद न लगे!



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