समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता दिए जाने की मांग पर चल रहे विवाद के बीच अब आरएसएस की एक संस्था ने सर्वे कराया है। आरएसएस की महिला शाखा से संबद्ध संवर्धिनी न्यास के एक सर्वे के अनुसार, कई डॉक्टरों और संबद्ध चिकित्सा पेशेवरों का मानना है कि समलैंगिकता 'एक डिसऑर्डर' यानी बीमारी है और यदि समलैंगिक विवाह को वैध कर दिया जाता है तो यह समाज में और बढ़ेगा।
आरएसएस से जुड़ी संस्था का यह सर्वे तब आया है जब समलैंगिक शादी का मामला अदालत में है और संविधान पीठ इस मामले में सुनवाई कर रही है। हाल ही में एक सुनवाई के दौरान सरकार की ओर से भारत के सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि केंद्र सरकार इस बात की जांच करने के लिए एक समिति का गठन करने के लिए सहमत है कि क्या समलैंगिक जोड़ों को कुछ कानूनी अधिकार दिए जा सकते हैं। हालाँकि विवाह के रूप में उनके रिश्ते की क़ानूनी मान्यता का सवाल इसमें शामिल नहीं है।
उससे पहले की सुनवाई में संविधान पीठ ने एसजी तुषार मेहता को सरकार से निर्देश प्राप्त करने के लिए कहा था कि क्या समलैंगिक जोड़ों को उनकी सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कुछ अधिकार दिए जा सकते हैं। पीठ ने पूछा था कि क्या कोई कार्यकारी दिशानिर्देश जारी किया जा सकता है ताकि समलैंगिक जोड़े संयुक्त बैंक खाते खोलने, जीवन बीमा पॉलिसियों में भागीदार होने, भविष्य निधि प्रदान करने आदि जैसे वित्तीय सुरक्षा उपाय किए जा सकें।
इसी बीच अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस से जुड़ी संस्था का सर्वे आया है। पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार आरएसएस के समानांतर एक महिला संगठन राष्ट्र सेविका समिति के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने कहा कि सर्वेक्षण के निष्कर्ष देश भर में जुटाए 318 प्रतिक्रियाओं पर आधारित हैं, जिसमें आधुनिक विज्ञान से लेकर आयुर्वेद तक उपचार के आठ अलग-अलग तरीक़ों के चिकित्सक शामिल हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि संवर्धिनी न्यास के अनुसार, सर्वेक्षण के प्रति अपनी प्रतिक्रिया में लगभग 70 प्रतिशत डॉक्टरों और संबद्ध चिकित्सा पेशेवरों ने कहा कि 'समलैंगिकता एक विकार है' जबकि उनमें से 83 प्रतिशत ने 'समलैंगिक संबंधों में यौन रोग के संचरण की पुष्टि की।'
न्यूज़ एजेंसी ने आरएसएस के निकाय के हवाले से रिपोर्ट दी है कि, 'सर्वेक्षण में यह देखा गया कि इस तरह के विवाहों को वैध बनाने का निर्णय मरीजों को ठीक करने और उन्हें सामान्य स्थिति में लाने के बजाय समाज में और अधिक अव्यवस्था को बढ़ावा दे सकता है।' इसमें कहा गया है, 'इस तरह के मनोवैज्ञानिक विकार के रोगियों को ठीक करने के लिए काउंसलिंग बेहतर विकल्प है।'
न्यास के सर्वेक्षण ने सिफारिश की है कि समलैंगिक विवाह को वैध बनाने की मांग पर कोई भी निर्णय लेने से पहले जनता की राय ली जानी चाहिए। राष्ट्र सेविका समिति से संबद्ध ने कहा, 'सर्वेक्षण प्रश्नावली के जवाब में 67 प्रतिशत से अधिक डॉक्टरों ने महसूस किया कि समलैंगिक माता-पिता अपनी संतान को ठीक से पालन नहीं सकते हैं।' रिपोर्ट के अनुसार न्यास के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने कहा, 'सर्वेक्षण का जवाब देने वाले 57 प्रतिशत से अधिक डॉक्टरों ने मामले में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप का विरोध किया।'
हालाँकि, समलैंगिकता को बीमारी मानने की जो बात सर्वे में कही गई है उसको अब तक तार्किक आधार पर दुनिया में कहीं भी मान्यता नहीं है। न ही अब तक इसकी पुष्टि हो पाई है कि समलैंगिक माता-पिता अपनी संतान का अच्छी तरह से पालन नहीं कर सकते। सर्वे में कही गई बातों पर विवाद हो सकता है। हाल ही एक सुनवाई के दौरान भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि 'समलैंगिक जोड़े का अस्तित्व कहीं और से आयात नहीं किया गया है और वो भी समाज का एक हिस्सा है। बात यह नहीं है कि अकेले लोगों की कोई गरिमा नहीं है।... सवाल पसंद का है।'
बता दें कि समलैंगिक विवाहों की मान्यता और संरक्षण के लिए उन याचिकाकर्ताओं की अपीलों के एक बैच पर अदालत सुनवाई कर रही है जिन्होंने तर्क दिया है कि उन्हें शादी करने के अधिकार से वंचित करना उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है और इस वजह से यह भेदभाव हुआ।
समलैंगिक विवाह के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में अब अगली सुनवाई 9 मई को होगी। समझा जाता है कि सुप्रीम कोर्ट में गर्मी की छुट्टियां होने से पहले इस पर कोई न कोई फैसला आ जाएगा।
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