अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने अफर्मेटिव एक्शन प्रोग्राम पर ऐतिहासिक निर्णय दिया है। भारत में वंचितों को मिलने वाले आरक्षण की तरह ही अमेरिका में नस्लीय असमानता और भेदभाव का सामना करने वालों को अफर्मेटिव एक्शन प्रोग्राम का लाभ मिलता रहा है। लेकिन अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने इस अफर्मेटिव एक्शन प्रोग्राम को ही भेदभाव बरतने वाला क़रार दे दिया है। यह एक ऐसा ऐतिहासिक फ़ैसला है जिसका असर सिर्फ़ अमेरिका में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में पड़ सकता है। इस मुद्दे पर विश्व स्तर पर बहस होगी! दुनिया भर के देशों में जाति, नस्ल, रंग आदि के आधार पर भेदभाव का सामना करने वालों को दी जाने वाली ऐसी सहूलियतों के ख़िलाफ़ मांग जोर पकड़ने की आशंका है। भारत में भी इसी तरह के लाभ के रूप में दिए जाने वाले आरक्षण को ख़त्म करने की मांग लगातार कुछ लोग करते रहे हैं। तो क्या अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले का असर वैश्विक होगा
इस सवाल का जवाब तो अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद अलग-अलग समूहों की प्रतिक्रिया से भी मिल सकता है। इन प्रतिक्रियाओं को जानने से पहले यह जान लें कि अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का आख़िर फ़ैसला क्या आया है।
दरअसल, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को विश्वविद्यालय प्रवेश में नस्ल और जातीयता के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया है। इससे दशकों पुरानी प्रथा अफर्मेटिव एक्शन प्रोग्राम को बड़ा झटका लगा है। अफर्मेटिव एक्शन प्रोग्राम ने अफ्रीकी-अमेरिकियों और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए शैक्षिक अवसरों को बढ़ावा दिया है। एएफ़पी की रिपोर्ट के अनुसार न्यायाधीशों ने निर्णय में रूढ़िवादी-उदारवादी में बँटा छह-तीन से फैसला दिया।
रिपोर्ट के अनुसार मुख्य न्यायाधीश जॉन रॉबर्ट्स ने बहुमत की राय में लिखा कि 'हालाँकि अफर्मेटिव एक्शन अच्छे इरादे से लाया गया और अच्छे विश्वास में लागू किया गया, लेकिन यह हमेशा के लिए नहीं रह सकता है। यह दूसरों के खिलाफ असंवैधानिक भेदभाव है।' रॉबर्ट्स ने लिखा, 'छात्र के साथ एक व्यक्ति के रूप में उसके अनुभवों के आधार पर व्यवहार किया जाना चाहिए - नस्ल के आधार पर नहीं।'
मुख्य न्यायाधीश ने फ़ैसले में लिखा कि मुख्य रूप से इस आधार पर निर्णय लेना कि आवेदक श्वेत है, काला है या अन्य है, अपने आप में नस्लीय भेदभाव है। उन्होंने कहा, 'हमारा संवैधानिक इतिहास उस विकल्प को बर्दाश्त नहीं करता है।'
बहुमत के विरोध वाले फ़ैसले में न्यायमूर्ति सोनिया सोतोमयोर ने बहुमत पर अलग-थलग समाज की वास्तविकता के प्रति 'कलरब्लाइंड' होने का आरोप लगाया।
उन्होंने लिखा, 'नस्ल को नजरअंदाज करने से ऐसे समाज में समानता नहीं आएगी जो नस्लीय रूप से असमान हैं। जो 1860 के दशक में और फिर 1954 में सच था, वह आज भी सच है। समानता के लिए असमानता की स्वीकृति ज़रूरी होती है।'
न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार न्यायमूर्ति सोतोमयोर ने लिखा कि लगातार और व्यवस्थित नस्लीय भेदभाव का मुकाबला करने के लिए अफर्मेटिव एक्शन यानी सकारात्मक कार्रवाई महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपनी लिखित असहमति में कहा, 'अदालत शिक्षा में नस्लीय असमानता, जो हमारी लोकतांत्रिक सरकार और बहुलवादी समाज की नींव है, को और अधिक मजबूत करके समान सुरक्षा की संवैधानिक गारंटी को नष्ट कर रही है।'
जिस तरह से इस मुद्दे पर जजों में अलग और विपरीत राय है वैसी ही राय वहाँ के नेताओं और लोगों में भी है। आम तौर पर डेमोक्रेट्स और उदार लोग अफर्मेटिव एक्शन के पक्ष में रहे हैं। लेकिन कंजर्वेटिव, पुराने तौर-तरीक़ों में विश्वास करने वाले और अधिकतर दक्षिणपंथी इस आरक्षण जैसी व्यवस्था के ख़िलाफ़ रहे हैं।
राष्ट्रपति जो बाइडेन सहित डेमोक्रेट्स ने अदालत के इस फ़ैसले को एक क़दम पीछे हटने वाला क़रार दिया है और इसकी आलोचना की है।
टेलीविजन पर प्रसारित एक संबोधन में बाइडेन ने देश से यह सुनिश्चित करने का आग्रह किया कि यह निर्णय सकारात्मक कार्रवाई पर आख़िरी फ़ैसला नहीं हो। उन्होंने दोहराया कि, 'अमेरिका में भेदभाव अभी भी मौजूद है। आज के फैसले से इसमें कोई बदलाव नहीं आएगा।'
इस निर्णय ने लगभग यह सुनिश्चित कर दिया है कि विशिष्ट संस्थानों के परिसरों में छात्र आबादी श्वेत और एशियाई की अधिक होगी और ब्लैक व लातीनी अमेरिकी की कम हो जाएगी।
उत्तरी कैरोलिना विश्वविद्यालय के एक मामले में वादी ने कहा था कि विश्वविद्यालय ने काले, हिस्पैनिक और मूल अमेरिकी लोगों को प्राथमिकता देकर श्वेत और एशियाई आवेदकों के साथ भेदभाव किया। हालाँकि, विश्वविद्यालय ने जवाब दिया कि उसकी प्रवेश नीतियों ने शैक्षिक विविधता को बढ़ावा दिया है।
हार्वर्ड का मामला भी अदालत में था और इस मामले में हार्वर्ड के वकीलों ने कहा कि चुनौती देने वालों ने त्रुटिपूर्ण सांख्यिकीय विश्लेषण पर भरोसा किया और इस बात से इनकार किया कि विश्वविद्यालय ने एशियाई अमेरिकी आवेदकों के साथ भेदभाव किया है।
हाल ही में प्यू रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट से पता चला है कि आधे अमेरिकी प्रवेश निर्णयों में नस्ल और जातीयता को ध्यान में रखने वाले कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का समर्थन नहीं करते हैं।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा फैसले ने दिखाया कि अदालत की रूढ़िवादी सर्वोच्चता अमेरिकी समाज में गर्भपात, बंदूक नीति और अफर्मेटिव एक्शन वाले मामले में तेज़ी से आगे बढ़ रही है। एक वर्ष की अवधि में ये तीनों फ़ैसले आए हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने क़रीब साल भर पहले ही एक महिला के गर्भपात के अधिकार की गारंटी को पलट दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने क़रीब 50 साल पहले 'रो बनाम वेड' फ़ैसले में देश भर में गर्भपात को वैध कर दिया था। उस समय यह फ़ैसला प्रगतिशील जजों ने दिया था जो लोगों के अधिकार की पैरवी करते थे, लेकिन अब जो सुप्रीम कोर्ट का मसौदा सामने आया है उसमें रूढ़िवादी सोच वाले जज बहुसंख्यक में हैं।
अमेरिका में ऐसे फ़ैसले तब से आ रहे हैं जब से तीन न्यायाधीशों की नियुक्ति पूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के कार्यकाल में हुई है। डोनल्ड ट्रम्प रिपब्लिकन हैं और वह दक्षिणपंथी व रूढ़िवादी विचारों वाले हैं। बहरहाल, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का असर दुनिया भर में हो सकता है। ऐसा इसलिए कि कई बार नीतियों को बनाते समय अमेरिका जैसे विकसित देशों की मिसाल कई देशों में दी जाती रही है। अब संभावना है कि कई देशों में इसकी मिसालें देकर आरक्षण जैसी व्यवस्था को ख़त्म करने की मांग जोर पकड़ेगी। ऐसा भारत में भी हो सकता है जहाँ लंबे समय से आरक्षण के ख़िलाफ़ दलीलें दी जाती रही हैं। तो सवाल है कि क्या अब दुनिया भर में वंचितों को दी जा रही किसी तरह की सहूलियतों पर इसका असर पड़ेगा
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