2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के पहले दिल्ली की सड़कों पर तमाम ऐसे ऑटोरिक्शा घूम रहे थे जिनके पीछे दो तस्वीरें छपी रहती थीं। एक तरफ़ केजरीवाल की और दूसरी तरफ़ 1998 से दिल्ली की मुख्यमंत्री पद संभाल रहीं शीला दीक्षित की। केजरीवाल के तस्वीर के ऊपर लिखा रहता था ‘ईमानदार’ और शीला दीक्षित के ऊपर ‘बेईमान।‘ भ्रष्टाचार विरोध के नाम पर हुए अन्ना आंदोलन के बैकग्राउंड मे हुए इस चुनाव में ज़ाहिर है कांग्रेस हार गयी, लेकिन कुछ दिन बाद ही एक आरटीआई के जवाब में केजरीवाल सरकार ने मान लिया था कि शीला दीक्षित के ऊपर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं है।
लेकिन केजरीवाल के झूठे आरोपों से बुरी तरह चोट खायी कांग्रेस की ओर से विपक्षी गठबंधन में आम आदमी पार्टी को शामिल करने के लिए यह शर्त नहीं लगायी जा रही है कि पहले स्व.शीला दीक्षित के प्रति किए गये अपराधों के लिए केजरीवाल माफ़ी माँगें तब उनसे कोई बात होगी, या जिस तरह से मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ़ भ्रष्टाचार के तमाम अनर्गल आरोप लगाकर उन्होंने कांग्रेस को बदनाम किया था, उसके लिए सार्वजनिक रूप से खेद जतायें, तब उन्हें विपक्षी खेमे का हिस्सा बनाया जाएगा। उल्टा 23 जून की पटना बैठक के पहले आम आदमी पार्टी की ओर से आये उकसावे वाले बयानों पर कोई प्रतिक्रिया न जताकर कांग्रेस ने साबित कर दिया कि वह विपक्षी एकता के लिए किस कदर गंभीर है। जबकि केजरीवाल ने दिल्ली सरकार के अधिकार को सीमित करने वाले अध्यादेश को केंद्रीय मुद्दा बनाने पर अड़ियल रवैया अपनाते हुए बताया है कि उनके लिए लोकतंत्र के लिए खतरा बन चुकी केंद्र की मोदी सरकार को हटाना कोई मुद्दा नहीं है। उन्हें मोदी से कोई दिक्कत नहीं है बशर्ते उन पर कोई रोकटोक न हो।
2024 के लोकसभा चुनाव से पहले हो रही विपक्षी एकता की कोशिशों के बीच केजरीवाल जिस तरह से कांग्रेस पर हमलावर हुए हैं, उस देखते हुए यह सवाल उठना लाज़िमी है कि वे 2024 के कहीं वे बीजेपी विरोधी अभियान को पटरी से उतारने की रणनीति तो नहीं बना रहे हैं किसी राज्य सरकार को काम न करने देना निश्चित ही संघीय ढांचे से जुड़ा सवाल है, लेकिन मोदी सरकार क्या यह सिर्फ़ दिल्ली के साथ कर रही है या वह विपक्ष की सभी सरकारों के साथ ऐसा ही व्यवहार करने की कोशिश कर रही है। अभी हाल ही में कर्नाटक की नयी कांग्रेस सरकार की गरीब परिवारों को दस किलो चावल देने की गारंटी योजना को रोकने के लिए केंद्र सरकार ने नियम ही बदल दिये। भारतीय खाद्य निगम की ओर से जारी आदेश मे कहा गया है कि राज्य सरकारों को गेहूँ और चावल की बिक्री बंद कर दी गयी है। यह भी संघीय ढांचे से जुड़ा मुद्दा है। तो क्या सभी पार्टियाँ अपने-अपने मुद्दों को केंद्रीय मुद्दा बनाने के ले भिड़ जाएँ। ऐसे में विपक्ष की एकता बनेगी कैसे
लड़ने का एक ही तरीका है कि बड़े सवाल यानी लोकतंत्र को बचाने और केंद्र की मोदी सरकार को अपदस्थ करने की कोशिश की जाए। अगर केंद्र की सरकार बदल गयी तो किसी अध्यादेश का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। वैसे भी, कांग्रेस ने साफ़ कहा है कि जब अध्यादेश बिल की शक्ल में संसद में पेश होगा तो वह फ़ैसला करेगी। जिसे राजनीति की सामान्य सी भी समझ है, वह जानता है कि कांग्रेस इस पर क्या फ़ैसला लेगी। लेकिन केजरीवाल जिस तरह से इसे ‘ब्लैकमेल’ करने के अंदाज में शर्त बनाकर पेश कर रहे हैं, वह राजनीति के प्रति उनकी गंभीरता पर भी संदेह पैदा करती है।
केजरीवाल के इस रुख ने एक बार फिर साबित किया है कि ‘कोई विचार न होना’ ही उनका और आम आदमी पार्टी का ‘मूल विचार’ है। हास्यासपद तो ये है कि वे कांग्रेस पर बीजेपी से मिले होने का आरोप लगा रहे हैं जो बीजेपी से अखिल भारतीय स्तर पर वैचारिक और राजनीतिक तौर पर जूझ रही है। जबकि सीएए-एनआरसी का मुद्दा रहा हो या फिर कोरोना के पीछे तबलीगी जमात को वजह बताने का.... अनुच्छेद 370 हटाने का मसला रहा हो या फिर किसान विरोधी कृषि कानूनों को समर्थन देने का, केजरीवाल लगातार मोदी सरकार के पाले में नज़र आती रही है।
गुजरात में बीजेपी को पिछले विधानसभा चुनाव में मिली ऐतिहासिक कामयाबी के पीछे आम आदमी पार्टी के कांग्रेस विरोधी रुख को भी बड़ा कारण माना जाता है। केजरीवाल अब मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की संभावनाओं को कमजोर करने के लिए वहाँ दमखम लगाने की धमकी दे रहे हैं, ये अलग बात है कि कर्नाटक में उनकी इस कोशिश को जनता ने गंभीरता से नहीं लिया।
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केजरीवाल विश्व इतिहास के शायद उन गिने चुने नेताओं में हैं जिन्होंने उस आंदोलन को ही निगल लिया जिसने उन्हें जन्म दिया था।
याद कीजिए भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन और उस दौरान ली गयीं कसमें। केजरीवाल की लिखी एक किताब स्वराज उन दिनों काफ़ी चर्चा में थी। इसे पारदर्शी और ईमानदार शासन से लेकर सामाजिक परिवर्तन अपने दस्तावेज़ के रूप मे आम आदमी पार्टी पेश करती थी। लेकिन लगता है कि उस किताब और उसमें लिखी बातों को सात तालों में बंद कर दिया गया है।
कौन भूल सकता है कि अन्ना आंदोलन के दौरान केजरीवाल जनलोकपाल को भ्रष्टाचार के मर्ज का सटीक इलाज बताते फिरते थे। पहली बार कांग्रेस के सहयोग से बनी दिल्ली सरकार को उन्होंने उसी जनलोकपाल के नाम पर कुर्बान कर दी थी। लेकिन अब वे इसका नाम तक नहीं लेते। दिल्ली में अगर पर्याप्त शक्ति न होने का बहाना है तो पंजाब में जनलोकपाल लागू करने से उन्हें कौन रोक रहा है। साल भर से ज़्यादा हो गये पंजाब मे आम आदमी पार्टी की सरकार बने, जनलोकपाल का कभी ज़िक्र तक नहीं हुआ। उल्टा इस पार्टी के तमाम नेता भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हैं।
दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया तो केजरीवाल के बाद पार्टी के सबसे बड़े चेहरे हैं, लेकिन वे न सिर्फ जेल में हैं, बल्कि हाईकोर्ट ने आरोपों को बेहद गंभीर बताते हुए उन्हें जमानत देने से भी इंकार कर दिया है। जिन्होंने कंधे पर झोला लटकाये ढीला कुर्ता पहने मनीष सिसोदिया को भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान देखा था, वे आज उनकी इस गति से निश्चित ही दुखी होंगे।
केजरीवाल पटना की बैठक में तो शामिल होकर चले आये लेकिन उन्होंन कहा कि है कि कांग्रेस के साथ होने वाली किसी बैठक में अब वे तब तक शामिल नहीं होंगे जब तक कि वह राज्यसभा में दिल्ली सरकार के हाथ बाँधने वाले अध्यादेश के विरोध का खुला ऐलान नहीं करती। अगली बैठक शिमला में 12 जुलाई के आसपास प्रस्तावित है। केजरीवाल का रुख बताता है कि वे बीजेपी को केंद्र से अपदस्थ करने के लिए बन रही किसी व्यापक एकता मे बिल्कुल भी रुचि नहीं रखते। दिल्ली और पंजाब की अपनी इकाईयों के आम आदमी पार्टी विरोधी तीखे तेवर के बाजवदू कांग्रेस नेतृत्व ने अभी तक संयम बना कर रखा है, लेकिन शायद उसे अब मान लेना चाहिए कि केजरीवाल अन्ना आंदोलन के दौरान आरएसएस से मिले समर्थन का अहसान चुका रहे हैं और वे मोदी का खेल बिगाड़ने की जगह बनाने की राह में हैं। ‘कांग्रेस मुक्त भारत’, मोदी का ही नहीं, केजरीवाल का भी सपना है।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हुए हैं)
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