कांग्रेस अपने अंदरुनी संकटों से इस तरह बाहर निकल आएगी, उसकी उम्मीद राजनीतिक विश्लेषकों तक ने छोड़ दी थी। लेकिन अब जिस तरह से पिछले 8 महीनों में 81 साल के बुजुर्ग मल्लिकार्जुन खड़गे ने कांग्रेस को जिन्दा कर दिया है, उसकी चर्चा हर जुबान पर है। खड़गे को जब गांधी परिवार ने पार्टी की बागडोर सौंपी थी तो उस वक्त तमाम राजनीतिक विश्लेषकों ने लिखा था कि वो गांधी परिवार के इशारे पर काम करेंगे और पार्टी को अब खड़ा कर पाना मुश्किल है। लेकिन आज उन्हीं मल्लिकार्जुन खड़गे को गांधी परिवार से तालमेल बिठाते हुए कांग्रेस पार्टी के लिए परिपक्व फैसला लेने वाले शख्स के रूप में जाना जा रहा है।
उनके अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस ने हिमाचल और कर्नाटक के चुनाव जीते। कई राजनीतिक पंडितों ने हिमाचल में कांग्रेस की जीत का श्रेय प्रियंका गांधी और कर्नाटक में जीत का श्रेय राहुल गांधी को देना चाहा लेकिन वो प्रचार बहुत ज्यादा नहीं चल पाया। अंत में स्वीकार किया गया कि हिमाचल और कर्नाटक में स्थानीय मुद्दों पर चुनाव लड़ने का फैसला खड़गे का ही था। पूरे चुनाव की रूपरेखा खड़गे ने तैयार की थी। कर्नाटक में तो जीत के बाद जिस तरह से नेतृत्व का संकट पैदा हुआ, अंततः वो भी मल्लिकार्जुन खड़गे के हस्तक्षेप पर हल हुआ।
खड़गे अक्टूबर 2022 में अध्यक्ष बने थे। उसके बाद कांग्रेस पार्टी में एक तरह की गतिशीलता दिखाई देती है। अध्यक्ष बनने के बाद खड़गे ने सबसे पहला काम 2024 के लिए टास्क फोर्स बनाने का काम किया। उन्होंने 47 नेताओं की एक संचालन समिति भी बनाई है, जो पार्टी के लिए सभी बड़े फैसले लेगी। उन्होंने किसी भी तरह की खेमेबाजी या बयानबाजी से बचने के लिए अभी तक नई सीडब्ल्यूसी भी नहीं बनाई है। सीडब्ल्यूसी की जगह 47 लोगों की संचालन समिति है।
हालांकि शुरुआत में पार्टी के अंदर चले तमाम झंझावातों के दौरान उन्होंने हिमाचल, कर्नाटक के चुनाव भी निपटाए। अब छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान का चुनाव मुख्य रूप से सामने है। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पार्टी की वापसी करानी है और मध्य प्रदेश में खोई हुई जमीन फिर से तलाशनी है। इसके अलावा तेलंगाना, मिजोरम में भी कांग्रेस को सत्ता में लाना है। खड़गे की टास्क फोर्स ने इसके लिए बाकायदा काम जारी रखा हुआ है और इस समय जिस तरह से चुनाव प्रभावित राज्यों को लेकर जिस तरह से पार्टी के फैसले सामने आ रहे हैं, उससे राज्यों में पार्टी के अंदरुनी संकट की चर्चा अब कोई नहीं करता।
दरअसल, कर्नाटक की जीत ने कांग्रेस का हौसला बढ़ा दिया है। हिमाचल की जीत के मुकाबले कर्नाटक में जीत के लिए पार्टी ने खड़गे के नेतृत्व में ज्यादा मेहनत की, वहां पर खड़गे की राजनीति का रणनीतिक कौशल दिखाई दिया। खड़गे कर्नाटक की नब्ज जानते थे। उन्होंने भाजपा को उसी के हिन्दुत्व के एजेंडे में उलझा दिया। बजरंग बली भाजपा के नहीं कांग्रेस के संकटमोचक बने। कर्नाटक की हार का सदमा भाजपा को लंबे वक्त तक रहेगा, क्योंकि अब वो सिर्फ उत्तर भारत या हिन्दी भाषी राज्यों की पार्टी बनकर रह गई है। दक्षिण भारत में वो कहीं नहीं है। 81 साल के बुजुर्ग ने भाजपा का रथ कर्नाटक में ही रोककर उसका साउथ में घुसने का रास्ता रोक दिया।
हाल ही में लिए गए कुछ फैसले खड़गे के रणनीतिक कौशल पर मुहर लगाते हैं। इस फेहरिस्त में छत्तीसगढ़ प्रमुख है। वहां भूपेश बघेल के खिलाफ जैसे ही हलचल शुरू हुई। खड़गे ने 28 जून को छत्तीसगढ़ के प्रमुख कांग्रेस नेताओं की बैठक बुलाई। इसी बैठक के बाद खड़गे ने छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव को वहां का उपमुख्यमंत्री घोषित कर दिया। दरअसल, टीएस सिंहदेव को छत्तीसगढ़ के कई विधायकों का समर्थन प्राप्त है। इससे पहले कि वहां राजस्थान की तरह कोई बयानबाजी शुरू होती, खड़गे ने रातोरात छत्तीसगढ़ में मर्ज का इलाज कर दिया।
खड़गे का ऑपरेशन तेलंगाना शुरू हो चुका है। राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के 12 नेताओं का हाल ही में कांग्रेस आगमन छोटी राजनीतिक घटना नहीं है। केसीआर की बीआरएस से आने वाले नेताओं में कोई छुटभैये नेता नहीं हैं। कांग्रेस में शामिल होने वालों में पूर्व सांसद पोंगुलेटी श्रीनिवास रेड्डी, पूर्व मंत्री जुपल्ली कृष्णा राव, पूर्व विधायक पन्याम वेंकटेश्वरलु, कोरम कनकैया और कोटा राम बाबू शामिल हैं। यह घटनाक्रम 26 जून का है। 27 जून को खड़गे ने तेलंगाना के सभी प्रमुख कांग्रेस नेताओं की बैठक बुला ली। बैठक में राहुल गांधी और पार्टी महासचिव वेणुगोपाल के अलावा एआईसीसी तेलंगाना प्रभारी माणिकराव ठाकरे, तेलंगाना पीसीसी अध्यक्ष रेवंत रेड्डी आदि शामिल हुए। तेलंगाना के नेताओं से कहा गया कि कांग्रेस वहां कर्नाटक फॉर्मुले के हिसाब से सरकार बनाने के लिए लड़ेगी। खड़गे के तेलंगाना ऑपरेशन के बाद मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के पैर के नीचे से जमीन खिसक गई है। वो उसके बाद महाराष्ट्र गए और वहां बीआरएस के चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। विपक्षी खेमे के बीच केसीआर की इस पहल को भाजपा की मदद करने वाली नजर से देखा गया।
महाराष्ट्र में भाजपा और एकजुट महाविकास अघाड़ी (एमवीए) के बीच सीधा मुकाबला है। अगर कोई पार्टी वहां अलग से घुसपैठ करती है तो उसे भाजपा की मददगार पार्टी के रूप में देखा जाएगा। एमवीए में कांग्रेस, एनसीपी और उद्धव ठाकरे की शिवसेना यूबीटी हैं। जिनका गठबंधन लगातार मजबूत बना हुआ है। लेकिन ऐसा नहीं है कि खड़गे सिर्फ एमवीए के सहारे वहां कांग्रेस को जिन्दा करना चाहते हैं। महाराष्ट्र के कांग्रेस संगठन में बदलाव का संकेत उन्होंने दे दिया है। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने 6 जून को खड़गे से दिल्ली में मुलाकात की थी।
मध्य प्रदेश को लेकर भी खड़गे समेत पूरी कांग्रेस काफी उत्साहित है। वहां के पूर्व सीएम कमलनाथ, दिग्विजय सिंह के साथ मई में खड़गे ने बैठक की थी। उस बैठक में भी राहुल गांधी और केसी वेणुगोपाल थे। मई में ही खड़गे और राहुल गांधी ने यह बयान देकर भाजपा को हिला दिया था कि एमपी में कांग्रेस को 150 सीटें मिलने जा रही है। आमतौर पर कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता ऐसे दावे नहीं करते हैं। लेकिन जिस तरह से सर्वे रिपोर्ट आ रही हैं, उसी के हिसाब से राहुल ने 150 सीटों का दावा किया था। हाल ही में कुछ और भी सर्वे एमपी को लेकर आए हैं। सर्वे करने वाले संगठनों को भाजपा के नजदीक माना जाता है। उस सर्वे में भी यह माना गया है कि एमपी में कांग्रेस जबरदस्त बढ़त लेकर आगे बढ़ रही है। खड़गे ने एमपी में किसी भी तरह की असंतुष्ट गतिविधियों को बढ़ावा देने से मना करते हुए कहा कि वहां पर पहला लक्ष्य जीत का है। उसके बाद कुछ और पर बात होगी।
खड़गे के एक्शन से साफ है कि वो पार्टी में सभी को साथ लेकर चलना चाहते हैं। दिल्ली और पंजाब के कांग्रेस नेताओं की बातें सुनने के बाद खड़गे ने केजरीवाल को लेकर अपना स्टैंड बदला। दरअसल, केजरीवाल दिल्ली अध्यादेश के विरोध में सभी विपक्षी दलों के नेताओं के साथ मुलाकात की थी। इसी क्रम में केजरीवाल ने खड़गे और राहुल गांधी से भी मिलने का समय मांगा। खड़गे ने फौरन पार्टी की दिल्ली यूनिट और पंजाब यूनिट से बात की। दोनों जगह से फीडबैक आया कि केजरीवाल को समय नहीं दिया जाए। खड़गे ने वही फैसला लिया। हालांकि पार्टी राज्यसभा में दिल्ली अध्यादेश आने पर आम आदमी पार्टी का समर्थन कर सकती है लेकिन केजरीवाल जब तक अपने बयानों के लिए माफी नहीं मांगते, तब तक राहुल और खड़गे, उनसे नहीं मिलेंगे।
खड़गे ने जिस तरह राजस्थान संकट को हल किया है, वो काबिलेतारीफ है। वहां पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। पार्टी लंबे समय तक पायलट की हरकतों को बर्दाश्त करती रही। जब हरकतों की सीमा पार हो गई तो खड़गे ने 29 मई को दोनों नेताओं को अपने दिल्ली आवास पर बुलाया। दोनों को समझा दिया गया कि अभी न तो सीएम बदला जाएगा और न ही अगला सीएम कौन होगा, इसकी घोषणा की जाएगी। अगर सचिन पायलट चुनाव तक ठीक से काम करें तो पार्टी फिर विचार करेगी, वो चाहें तो पार्टी छोड़कर जा सकते हैं। सचिन पायलट को समझ आ गया कि कांग्रेस से निकलते ही वो भाजपा के लिए सिर्फ गुर्जर नेता ही रह जाएंगे और गुर्जर वोट पाने के बाद भाजपा उन्हें हाशिए पर ढकेल देगी, जैसा एमपी में ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ हुआ है। पायलट अब खामोश हैं और कांग्रेस पार्टी के राजस्थान में जीतने की बातें कर रहे हैं। खड़गे उन्हें राजस्थान की राजनीति का आइना दिखाने में कामयाब रहे।
खड़गे ने जिस तरह से फैसले लिए हैं, उनसे यह भी साबित होता है कि गांधी परिवार ने न सिर्फ उन्हें पूरी खुली छूट दी है, बल्कि परिवार उनके साथ खड़ा भी है। जिस तरह खड़गे पार्टी की बैठकों में राहुल गांधी को बुलाते हैं और राहुल एक सामान्य कांग्रेस नेता के रूप में शामिल होते हैं। हालांकि वो सामान्य इतना भी सामान्य नहीं है लेकिन खड़गे के अभी तक सारे फैसले ऐसे रहे हैं, जिनसे गांधी परिवार भी सहमत रहा है। यह बेहतर तालमेल की तस्वीर है। हालांकि यूपी सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस और खड़गे के लिए आज भी है। लेकिन यूपी में भी पार्टी की सक्रियता शुरू हो चुकी है।
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