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केंद्रीय कैबिनेट ने डेटा संरक्षण बिल को बुधवार को मंजूरी दे दी है। यह दूसरा मौका है जब मोदी सरकार डेटा सुरक्षा पर कानून बनाने की कोशिश करने जा रही है। करीब छह साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने प्राइवेसी (निजता) को मौलिक अधिकार बताया था। लेकिन सरकार जिस डेटा संरक्षण बिल को फिर से संसद के मानसून सत्र में लाने जा रही है, उसको लेकर पहले से ही तमाम चिन्ताएं जताई जा रही थीं। संसद का मानसून सत्र 20 जुलाई से शुरू होगा। उसी दौरान इस बिल को पेश किया जाएगा।

इसका सही नाम है - डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2022, जिसका मसौदा पिछले साल नवंबर में जारी किया गया था।

इस विधेयक में क्या है, संसद में इसे पेश किए जाने तक यह गोपनीय रहेगा। लेकिन इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि नवंबर के मसौदे में विशेषज्ञों ने जिन बातों को चिह्नित किया था, उनमें से कुछ सबसे विवादास्पद मुद्दों को बरकरार रखा गया है। इनमें केंद्र और उसकी एजेंसियों को व्यापक छूट देना और डेटा सुरक्षा बोर्ड की भूमिका को कमजोर करना शामिल है।

अगर यह विधेयक संसद में पास हो गया तो ऑनलाइन फैक्ट चेकर प्लैटफॉर्म या साइटों को सरकार के पास रजिस्ट्रेशन कराना पड़ सकता है। क्योंकि इसमें ऐसा प्रावधान किया गया है। ऐसा हुआ तो ऑल्ट न्यूज जैसा प्लैटफॉर्म संकट में आ सकता है, जिसने सरकार और सत्तारूढ़ दल के नेताओं से संबंधित तमाम ऐसी चीजों को एक्सपोज कर दिया, जिसे वो छिपाना चाहते थे।

ऑनलाइन फैक्ट चेक करने वाले प्लेटफॉर्मों को सरकार के प्रति ज्यादा जवाबदेह बनाना एक तरह से सरकारी योजना का हिस्सा है। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक पता चला है कि इस उपाय को आगामी डिजिटल इंडिया बिल में एक महत्वपूर्ण प्रावधान के रूप में शामिल किया जाएगा। कुछ मीडिया संगठनों ने भी अपनी फैक्ट चेक यूनिट बना रखी है। इसके तहत पहले उन्हें रजिस्ट्रेशन का मौका इस बिल के प्रावधान के तहत दिया जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस की चिन्ता

सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जस्टिस बी एन श्रीकृष्ण ने 2020 में ही आगाह किया था कि केंद्र सरकार को ज़्यादा अधिकार और क़ानूनी छूट देना एक ख़तरनाक ट्रेंड है। इसके साथ ही उन्होंने संभावित "ऑरवेलियन स्टेट" की चेतावनी दी है। "ऑरवेलियन स्टेट" का मतलब है लोगों के कल्याण और मुक्त समाज को तबाह करने वाला राज्य। यानी ऐसे सख्त क़ानून वाला राज्य जिसमें लोगों पर हद से ज़्यादा निगरानी हो, ग़लत सूचनाएँ फैलाई जाएँ और प्रोपगेंडा चलाया जाए। समाज के हर तबक़े पर सरकार का नियंत्रण, अपने ही लोगों के निजी और सार्वजनिक जीवन पर सरकारी निगरानी और अनावश्यक ताकझाँक भी। जस्टिस बी एन श्रीकृष्ण की यह चेतावनी डेटा प्रोटेक्शन बिल को लेकर आई है। उनके नेतृत्व में ही इसके मूल विधेयक को तैयार किया गया था। बाद में सरकार ने उसमें बदलाव कर दिया। इसी बदलाव पर जस्टिस बी एन श्रीकृष्ण ने संसद की ज्वाइंट सेलेक्ट कमेटी को एक नोट लिखा था। उनकी यह चेतावनी इस लिहाज़ से काफ़ी अहम हैं कि निजी जानकारियों की सुरक्षा को लेकर चिंताएँ जताई जा रही हैं और इसके दुरुपयोग की संभावना है।

इस नोट में उन्होंने चेतावनी देने के साथ-साथ कई सवाल भी उठाए थे और कड़ी टिप्पणी की थी। नया विधेयक संवेदनशील व्यक्तिगत डेटा की परिभाषा तय करने के अधिकार जैसी कई शक्तियों को डेटा संरक्षण प्राधिकरण से हटाकर केंद्र सरकार को देता है। यह मूल मसौदे में रखे गए उस स्वतंत्र समिति के प्रावधान को भी हटा देता है जो डीपीए सदस्यों को नियुक्त करता। इसके बजाए अब सरकारी अधिकारियों को इसकी नियुक्ति का अधिकार देता है। इस प्रावधान को संबोधित करते हुए ही जस्टिस श्रीकृष्ण ने इसे "एक ख़तरनाक प्रवृत्ति" कहा है। 'द इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने कहा था, ‘सरकारी निगरानी के लिए दी गई "अस्पष्ट" छूट निजता के अधिकार का उल्लंघन है और यह एक संभावित "ऑरवेलियन स्टेट" की शुरुआत है।

पूर्व जज जस्टिस श्रीकृष्ण की निजता के अधिकार संबंधी टिप्पणी काफ़ी मायने रखती है क्योंकि ख़ुद सुप्रीम कोर्ट इस पर ऐतिहासिक फ़ैसला सुना चुका है। 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने देश के प्रत्येक नागरिक को प्रभावित करने वाले अपने फ़ैसले में निजता के अधिकार को संविधान के तहत मौलिक अधिकार घोषित किया है। तत्कालीन चीफ़ चस्टिस जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने फ़ैसले में कहा था कि निजता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता और पूरे भाग तीन का स्वाभाविक अंग है।

निजता के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला तब आया था जब सरकार आधार कार्ड पर तरह-तरह की दलीलें गढ़ रही थी। तब विभिन्न जन-कल्याण कार्यक्रमों का लाभ उठाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा आधार कार्ड को अनिवार्य करने को चुनौती दी गई थी।

अब जो डेटा की सुरक्षा को लेकर जो विवाद है यह भी कुछ ऐसा ही मामला है। क्योंकि डेटा की सुरक्षा विवाद में तीन हिस्सेदार हैं। आम व्यक्ति, सरकार और टेक्नोलॉजी से जुड़े कॉरपोरेट। लेकिन इसमें आम आदमी की प्राइवेसी सबसे ज्यादा दांव पर है। उसकी पैरोकारी कौन करेगा। यह संसद में पता चल जाएगा कि कौन सी पार्टी इसका समर्थन करने के लिए मोदी सरकार के साथ खड़ी होती है और कौन सी पार्टी विरोध करने के लिए जनता के साथ खड़ी होती है।


जस्टिस श्रीकृष्ण के मूल मसौदे में सभी व्यक्तिगत डैटा, यहाँ तक ​​कि ग़ैर-संवेदनशील और नॉन-क्रिटिकल डैटा की एक प्रति भारत में सुरक्षित रखना संस्थाओं के लिए ज़रूरी था। सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा संशोधित विधेयक में उस समय व्यक्तिगत डेटा की कॉपी रखने की आवश्यकता को हटा दिया और सरकारी अनुमोदन के साथ संवेदनशील डेटा को विदेश में रखने की अनुमति दी गई। हालाँकि इसके बावजूद बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों ने बिल के दोनों रूपों में अब तक रखी गई शर्तों की आलोचना की है। जस्टिस श्रीकृष्ण ने नोट में लिखा है कि व्यक्तिगत डेटा की एक प्रति रखने की ज़रूरत इसलिए थी कि कभी कम सूचना पर ऐसे डेटा तक पहुँचने की ज़रूरत पड़ सकती है। उन्होंने कहा है कि जब एक प्रति भारत में नहीं होगी तो विदेशों में रखे डेटा से इसे प्राप्त करने के लिए कम से कम 18 से 24 माह तक लगे जाएँगे।



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