साल 2022 की दो बड़ी घटनाएँ हैं जिनके आईने में हिंदी या विश्व साहित्य को देखा जा सकता है- गीतांजलि श्री को मिला बुकर और सलमान रुश्दी पर हुआ हमला। पुरस्कार और हमले की इन दो अंतर्विरोधी घटनाओं को मिलाकर देखेंगे तो हमारे समय में साहित्य की संभावनाओं और चुनौतियों- दोनों का कुछ अंदाज़ा मिलेगा। पहली बार किसी हिंदी लेखक को मिला अंतरराष्ट्रीय बुकर सम्मान बताता है कि मूलतः यूरोप केंद्रित सम्मान-दृष्टि अब सुदूर एशियाई-अफ़्रीकी देशों की ओर भी पड़ रही है। हालांकि इसमें यह तथ्य भी शामिल है कि ये देश अब इतने सुदूर नहीं रह गए हैं। क्या इत्तिफ़ाक़ है कि इस साल मैन बुकर भी एक दक्षिण एशियाई लेखक के खाते में गया- श्रीलंका के लेखक शेहान करुणातिलका को उनकी किताब ‘द सेवेन मून्स ऑफ माली अल्मीदा’ पर यह सम्मान मिला।
गीतांजलि श्री को बुकर निश्चय ही भारतीय संदर्भ में इस वर्ष की सबसे बड़ी साहित्यिक परिघटना है। इससे कम से कम दो तीन बातें साफ़ हुई हैं। पहली बात तो यह कि भारतीय या एशियाई भाषाओं में भी ऐसा लेखन हो रहा है जिसे वैश्विक मान्यता मिल सकती है। दूसरी बात यह कि भारतीय लेखन में अचानक अनुवाद को एक नई तरह की हैसियत हासिल हुई है। पहली बार लेखक अनुवादकों की तलाश में हैं। (हालांकि अनुवादकों के पैसे अब भी न्यूनतम मज़दूरी से भी कम हैं।) डेजी रॉकवेल किसी दूसरे लेखक से कम नहीं जानी जातीं। तीसरी और ज़्यादा महत्वपूर्ण बात गीतांजलि श्री को मिले पुरस्कार के बाद उनके लेखन और उपन्यास पर शुरू हुई चर्चा रही। जिन लोगों ने बहुत प्रमुदित भाव से एक बुकर विभूषित लेखिका का उपन्यास खरीदा, उन्होंने पाया कि यह तो वैसा दिलचस्प उपन्यास नहीं है जैसी फिल्में हुआ करती हैं, कि इसमें उनका मन नहीं लग रहा है, इसकी हिंदी भी उन्हें चुभ रही है और कई बार कथानक उनके हाथ से छूट रहा है।
हिंदी में ऐसा जटिल लेखन नया नहीं था- ख़ुद गीतांजलि श्री की पिछली किताबें इसी लेखन प्रक्रिया की संतानें हैं, लेकिन पहली बार व्यापक हिंदी समाज के सामंने एक ऐसा पाठ आ रहा था जिससे उनको अच्छे साहित्य या उपन्यास की अपनी परिभाषा या परिकल्पना बदलने की ज़रूरत महसूस हो रही थी। कई पाठकों ने इस पाठ से संघर्ष किया और यह समझा कि कई बार उपन्यास पाठक तक ख़ुद नहीं आते, पाठक को भी उपन्यासों तक जाना पड़ता है। लेखन और पठन-पाठन एक बौद्धिक श्रम है जिसमें अबौद्धिक क़िस्म के आनंद या मनबहलाव की अपेक्षा को ठेस लगनी ही लगनी है। तो पाठ की यह नई समझ, औपन्यासिकता को लेकर चली यह बहस भी इस साल की उपलब्धियों के खाते में दर्ज की जानी चाहिए।
लेकिन इसी साल एक अन्य बुकर विजेता सलमान रुश्दी पर हुआ हमला हमारे समय में लेखन की एक बड़ी चुनौती की ओर भी इशारा करता है। पहले मेन बुकर से और फिर बुकर ऑफ बुकर्स से सम्मानित सलमान रुश्दी 12 अगस्त को पेन्सिल्वेनिया के पास एक कार्यक्रम में बोलने को मंच पर पहुंचे थे तभी उन पर एक शख़्स ने चाकू से हमला कर दिया। हादी मतार नाम के इस शख़्स ने उन्हें ताबड़तोड़ चाकू मारे। 75 साल के सलमान रुश्दी बच गए, लेकिन उन्हें ख़ासी शारीरिक पीड़ा और अक्षमता से गुज़रना पड़ा है। उनके साहित्यिक प्रतिनिधि ने अक्टूबर के आख़िरी हफ़्ते में जानकारी दी कि इस हमले में उनकी एक आंख चली गई है और एक हाथ बेकार हो गया है।
तो इस साल ने 75 साल के एक लेखक को अपंग बना दिया। हालांकि उनके बेटे का कहना है कि उनके हौसलों को अब भी खरोंच नहीं पहुंची है।
सलमान रुश्दी के ख़िलाफ़ क़रीब 25 साल पहले ईरान से जो फतवा चला था, और जिसकी वजह से रुश्दी को बरसों तक छुपे रहना पड़ा था, वह धीरे-धीरे अप्रासंगिक हो चला था, और ख़ुद ईरान कह चुका था कि उसकी इस फतवे में दिलचस्पी नहीं बची है, लेकिन तभी इस हमले ने बताया कि कट्टरपंथ नए सिरे से सांस ले रहा है, वह नए हमलों की तैयारी में है।
2022 के साहित्यिक स्वरूप को अगर रेखांकित करना हो तो इन दो बिल्कुल अंतर्विरोधी घटनाओं को जोड़ कर देखा जा सकता है। सम्मान और आक्रमण की यह साझा नियति क्या कुछ कहती है चाहें तो याद कर सकते हैं कि बुकर के बाद गीतांजलि श्री के उपन्यास पर भी अश्लीलता और धार्मिक भावनाएँ भड़काने का आरोप लगाने की कोशिश हुई और इसकी वजह से उनका एक कार्यक्रम भी रद्द करना पड़ा। लेकिन शुक्र है कि यह कोशिश बहुत परवान नहीं चढ़ी- गीतांजलि श्री फिलहाल निरापद हैं।
लेकिन इस साल ने बताया है कि लेखक सुरक्षित नहीं हैं। उनके ख़िलाफ़ मुक़दमे हो सकते हैं, उनको किसी प्रेक्षागृह में मारा जा सकता है, उनको सड़क पर घेरा जा सकता है। भारत में लेखकों और बौद्धिकों को गोली मारने, डराने-धमकाने या फिर उन्हें जेल में डालने तक के उदाहरण बीच-बीच में मिलते रहे हैं।
सवाल है कि लेखक क्या करे क्या वह लिखना बंद कर दे क्या वह अपना एक सुरक्षित दड़बा बना ले और सरकार द्वारा गढ़े जा रहे आदर्श नागरिक की परिभाषा पर खरा उतरने की कोशिश करता रहे
सौभाग्य से बहुत सारे लेखकों ने यह रास्ता नहीं चुना है। वे ज़िद की तरह लिख रहे हैं, सरकार और सत्ता प्रतिष्ठान की आलोचना कर रहे हैं, जो वैचारिकी कट्टरता, अंधविश्वास और सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रही है, उसके ख़िलाफ़ लगातार लिख रहे हैं। इस उत्तर कोविड काल में जो लेखकीय सक्रियता नज़र आ रही है, उसमें काफी कुछ ऐसा है जो सत्ता को चुभ रहा है।
बहरहाल, यह साल उत्तर कोविड काल में कई तरह की वापसियों का साल रहा। बीते दो साल से रुकी हुई किताबें अचानक बड़ी तादाद में सामने आई हैं। एक के बाद एक उपन्यास, कविता-संग्रह, कहानी-संग्रह और वैचारिक लेखन से जुड़ा साहित्य सामने आ रहे हैं। दूसरी बात यह कि हिंदी के जाने-माने प्रकाशकों के साथ-साथ अचानक कई नए प्रकाशक सामने आ रहे हैं जो बहुत तेज़ रफ़्तार में नई किताबें लेकर आ रहे हैं। हालाँकि यह प्रक्रिया पुरानी है- नए संस्थान आते और बिला जाते हैं, लेकिन प्रकाशन-तंत्र से जुड़े जाने-माने संस्थानों के तौर-तरीक़ों से निराश-हताश लेखक अब इन नए विकल्पों की ओर भी जा रहे हैं।
इसी साल विनोद कुमार शुक्ल की रॉयल्टी से जुड़ा विवाद सामने आया जिसमें उन्होंने दो बड़े प्रकाशकों- राजकमल और वाणी पर- पूरी रॉयल्टी न देने का आरोप लगाया। हालांकि दोनों प्रकाशकों ने इस मामले में अपनी आधिकारिक सफ़ाई जारी की लेकिन यह सवाल बचा रहा कि पचास करोड़ से ज़्यादा हिंदी पाठकों की दुनिया में हिंदी की किताबें कुछ हज़ार भी क्यों नहीं बिक पातीं।
इस साल एक और वापसी समारोहों की रही। पिछले दो साल से ऑनलाइन आयोजनों का अभ्यास कर चुकी हिंदी की दुनिया मंचीय कार्यक्रमों को जैसे भूल चुकी थी। लेकिन अब एक के बाद एक आयोजन हो रहे हैं। ‘हंस’, ‘कथादेश’ जैसी पत्रिकाओं ने अपने बड़े आयोजन किए। इसके अलावा कोलकाता से झांसी तक तरह-तरह के समारोह होते रहे।
‘हंस’ के समारोह को इस सिलसिले में ख़ास तौर पर याद किया जा सकता है। तीन दिन का यह समारोह स्त्री सृजनशीलता पर केंद्रित था।
इस समारोह के 12 सत्रों में 80 से ज़्यादा वक्ता थे। इनमें से 90 फ़ीसदी वक्ता महिलाएं थीं। यह हिंदी के मंचों पर बिल्कुल एक नया दृश्य था। अमूमन किसी भी कार्यक्रम में हम मंच पर चार-पांच पुरुषों के बीच एक या दो महिलाओं को बैठा देखते हैं, अगर ग़लती से महिला वक्ताओं की संख्या ज़्यादा हो जाए तो इसका कुछ हल्के मज़ाक या व्यंग्य से उल्लेख करना नहीं भूलते, लेकिन हंस के इस आयोजन में तीनों दिन मंच महिलाओं से भरा था। कई सत्र ऐसे थे जिनमें सिर्फ़ महिला वक्ता और महिला संचालक थीं।
रज़ा फाउंडेशन के आयोजन भी साल भर इधर-उधर होते रहे। लेकिन मंडला में करीब तीस युवा लेखकों के साथ छह गैरहिंदीभाषी लेखकों की साहित्यिक विरासत पर दो दिन चले संवाद का आयोजन अनूठा रहा। संभवतः पहली बार ऐसा हुआ होगा कि दो दिन तक हिंदी के युवा लेखक पंजाबी के हरभजन सिंह पर, उर्दू के अख़्तरुल ईमान पर, बांग्ला के शंख घोष पर, उड़िया के रमाकांत रथ पर, मराठी के अरुण कोलटकर पर और मलयालम के अयप्पा पणिक्कर पर विचार करते रहे। इसके अलावा भोपाल में कला और साहित्य पर केंद्रित कई दिन चला समारोह लेखकों की भागीदारी की दृष्टि से अतुलनीय रहा।
हालांकि एक बहस हिंदी में समारोहों और पुरस्कारों पर भी चल पड़ी। यह सवाल फिर उठा कि लेखक को समारोहों में जाना चाहिए या नहीं, या फिर किस तरह के समारोहों में जाना चाहिए। इसी तरह साल के अंत में कवि बद्रीनारायण को मिले साहित्य अकादमी पर तीखा विवाद चला। यह आरोप भी लगा कि बद्रीनारायण को उनके दक्षिणमुखी होने का पुरस्कार दिया गया है। बहरहाल, इसमें शक नहीं कि बीते कुछ वर्षों में साहित्य अकादेमी उत्तरोत्तर दक्षिणपंथी प्रवृत्तियों की ओर मुड़ी है और इसकी छाया उसके पुरस्कारों पर भी दिखती रही है। इससे बुरा यह हुआ है कि अकादेमी के साहित्यिक आयोजन अपनी अर्थवत्ता और प्रासंगिकता जैसे खो चुके हैं।
बहरहाल, कह सकते हैं कि साहित्य और समाज के लिहाज से 2022 बंद घरों से बाहर आने का साल रहा। लोग निकले, मिले, उन्होंने जम कर बात की, रुकी हुई कलमें चल पड़ीं, रुके हुए छापाखाने चल पड़े, नई-नई किताबें आती रहीं, समारोह होते रहे और इन सबके बीच वे चुनौतियां और चेतावनियां भी सिर उठाती रहीं जो किन्हीं आज़ाद लेखकों के सामने हमेशा आती रही हैं।
उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले वर्षों में यह रफ़्तार बनी रहेगी, कलम और तेज़ होगी और उसको कुचलने की कोशिशें चाहें जितनी तीखी और जानलेवा हों, अंतत: लेखकों के हौसले के आगे हार जाएंगी। भरोसा करें कि सलमान रुश्दी अपनी बची-खुची दृष्टि से दुनिया देखेंगे और अपने एक हाथ से इसे बदलने वाली रचना भी लिखेंगे। और कामना करें कि गीतांजलि श्री के लेखन को मिली नई मान्यता के साथ जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह दूसरे लेखकों तक, दूसरी भाषाओं तक जाएगा।
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