2022 में ट्रोल आर्मी का शिकार रहा हिंदी सिनेमा? 

2022 का साल कोरोना की महामारी से राहत की ख़बर के साथ शुरू हुआ था और हिंदी फिल्म उद्योग को उम्मीद बंधी थी कि लॉकडाउन की पाबंदियों की वजह से सिनेमाघरों से दो साल दूर रहे दर्शक वापस लौटेंगे और कारोबार फिर चल निकलेगा। साल बीतते-बीतते हिंदी सिनेमा बुरी तरह लड़खड़ाता दिख रहा है ।

इसकी वजह सिर्फ हिट-फ्लॉप का गणित या मुंबइया मसाला फिल्मों के कारख़ाने से निकल रही कमजोर कहानियों वाली लचर फिल्में ही नहीं हैं , बल्कि फिल्मों और कलाकारों को लेकर इस साल जिस तरह के तमाम विवाद हुए और कई फिल्मों के बहिष्कार के फ़तवे जारी किये गये, उससे फिल्म उद्योग के अस्तित्व के लिए ही गंभीर चुनौतियाँ खडीं हो गई हैं। 

शाहरुख खान और दीपिका पादुकोण की फिल्म ‘पठान’ के एक गाने के बोल और हीरोइन की पोशाक के रंग को लेकर एक सुनियोजित सांप्रदायिक बवाल मचाया गया और बहुसंख्यक वर्ग की आहत भावनाओं के शोरशराबे के दबाव में सेंसर बोर्ड को इस फिल्म के निर्माताओं को बदलाव करने को कहना पड़ा । यह सेंसर बोर्ड के दब्बूपने के साथ साथ हिंदी फिल्म उद्योग के भगवाकरण की लगातार तेज़ होती कोशिशों की बानगी है। 

दक्षिणपंथी राजनीति  से संचालित सत्ता समूह और उसके समर्थक तमाम संगठन  हिदी सिनेमा के सेकुलर चरित्र को लेकर नाकभौं सिकोड़ते रहे हैं ।  इतिहास के भगवाकरण के प्रयासों की  ही तरह आहत भावनाओं की आड़ में हिंदी सिनेमा के भी भगवाकरण की कोशिश हिंदी सिनेमा के लिए बॉक्स ऑफ़िस पर फिल्मों की नाकामी से बड़ा ख़तरा है। हिंदी सिनेमा के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन ने कोलकाता फिल्मोत्सव के मंच से सिनेमा के संदर्भ में अभिव्यक्ति की आजादी, नागरिक अधिकारों, फिल्मों में कट्टर  राष्ट्रवाद और मॉरल पुलिसिंग का जिक्र किया था। अमिताभ बच्चन ने अपने वक्तव्य में जो सवाल उठाये हैं, उन पर फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों को मुखर होकर गंभीरता से सोचने और विस्तार से चर्चा करने की ज़रूरत है। 

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2022 की बहुत चर्चित, विवादित और कमाई के हिसाब से बेहद कामयाब फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ को भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म उत्सव में जूरी के अध्यक्ष इज़रायली फिल्मकार नदाव  लापिड ने एक वाहियात प्रोपेगैंडा फिल्म कह कर बहुत बड़ा विवाद खड़ा कर दिया था।सरकार की  खूब फ़ज़ीहत हुई और फिल्म से जुड़े लोगों और समर्थकों ने लापिड की मंशा पर सवाल भी उठाये। इस फिल्म के  प्रचार  और प्रोत्साहन का काम जिस तरह केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के तमाम नेताओं और राज्यों में उनकी सरकारों की तरफ से किया गया, वह स्पष्ट दिखाता है कि सत्ता समूह फिल्म उद्योग से किस तरह की सामग्री की अपेक्षा करता है। हिंदी सिनेमा अपनी कहानियों की विविधता के लिए जाना जाता है । अगर फिल्में राजनीतिक ध्रुवीकरण की मंशा से या सत्ता में रहने वाले दलों और नेताओं को खुश करने के मक़सद बनायी जाने लगेंगी तो कलात्मक अभिव्यक्ति और आजादी पर संकट गहराना तय है। हर प्रोपेगैंडा फिल्म भी हिट नहीं होती।  

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इस साल कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी समर्थकों की ओर से कुछ फिल्मों के बहिष्कार की एक सुनियोजित मुहिम सोशल मीडिया के तमाम मंचों काफी जोरशोर से चलाई गई । चार साल बाद बड़े परदे पर आई आमिर खान की फिल्म ‘लाल सिंह चड्ढा’ के खिलाफ बाकायदा दुष्प्रचार अभियान चलाया गया। लोगों से सिनेमाहॉल न जाने की अपील कई गई। ‘लाल सिंह चड्ढा’ टॉम हैंक्स की ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित फिल्म ‘फॉरेस्ट गम्प’ का हिंदी रूपांतरण है। फिल्म बॉक्स ऑफ़िस पर बुरी तरह नाकाम हुई । तमाम दर्शकों और समीक्षकों ने आमिर की फिल्म को फ़ॉरेस्ट गम्प के मुकाबले कमजोर प्रस्तुति माना। लेकिन नाकामी की एक वजह बहिष्कार की मुहिम और नकारात्मक प्रचार को भी माना गया। 

आमिर खान मोदी राज में देश के माहौल के बारे में अपने एक पुराने बयान की वजह से बीजेपी के नेताओं और उनके समर्थकों के निशाने पर हैं। शाहरुख खान पर भी देश में बढ़ती असहिष्णुता पर अपनी एक पुरानी टिप्पणी की वजह से लगातार हमला होता रहा है। दीपिका पादुकोण जेएनयू में छात्रों के आंदोलन के बीच वहाँ छात्रों से मिलने पहुँच गई थीं जिसके लिए नरोत्तम मिश्रा जैसे बीजेपी के मंत्रियों से लेकर सोशल मीडिया पर सक्रिय ट्रोल मंडली उन्हें टुकडे टुकडे गैंग से जोड़ती रहती है। 

‘पठान’ फिल्म के विरोध का एक कारण उसके मुख्य कलाकारों शाहरुख और दीपिका से सत्ता समूह और उनके समर्थकों की चिढ़ भी है जो नफरत की तरह सामने आती है।

रनबीर कपूर की फिल्म ‘शमशेरा’ के बहिष्कार की भी मुहिम चली। फिल्म कमजोर कहानी और लचर निर्देशन की वजह से पिटी मगर ट्रोल आर्मी  का हौसला भी बढ़ा। जब रनबीर कपूर और आलिया भट्ट की फिल्म ‘ब्रह्मास्त्र’ पार्ट वन आई तो उनके बहिष्कार की मुहिम भी चली लेकिन इस बार बायकॉट मंडली औंधे मुँह गिरी । ‘ब्रह्मास्त्र’ इस साल हिंदी की सबसे ज्यादा कमाई वालई फिल्म बनी।  

लेकिन सत्ता समर्थक खेमे के एक बड़े अभिनेता अक्षय कुमार के लिए यह साल बहुत ख़राब रहा।अक्षय कुमार की फिल्में भी इस साल बहुत बुरी तरह पिटीं। अक्षय की ‘बच्चन पांडे’, ‘सम्राट पृथ्वीराज’, ‘रक्षाबंधन’, ‘कटपुतली’और ‘रामसेतु’ दर्शकों की कसौटी पर खरी नहीं उतरीं। सिनेमा घरों में पिटी ये सारी फिल्में अब ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म पर उपलब्ध हैं।

फिल्मों और धारावाहिक मनोरंजन के शौकीनों के लिए कोरोना के डरावने दौर में तमाम ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म सिनेमाघरों का शानदार विकल्प बनकर उभरे थे जहाँ दर्शक मल्टीप्लेक्स के मुकाबले कम खर्च में अपने निजी दायरे में सुरक्षित रहते हुए अपनी सुविधा से दुनियाभर की बेहतरीन फिल्में और सीरीज़ देख सकते थे।

2022 का साल कोरोना से राहत की ख़बर लेकर आया, सिनेमाहॉल खुले, वहाँ बड़े बजट की तमाम फिल्में रिलीज़ हुईं, तब भी ओटीटी का जलवा क़ायम रहा ।यही नहीं, कहानियाँ कहने में जिस विविधता और प्रयोगधर्मिता की अपेक्षा बड़े परदे पर दिखने वाली फिल्मों में होती है, वह ओटीटी मंचों पर इस वर्ष ज्यादा विस्तार से नज़र आई। अगर 2022 को ओटीटी के लिए प्रयोगों का साल कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा। 

ओटीटी पर विषयों की विविधता और उत्कृष्ट बहुभाषी मनोरंजन की सहज उपलब्धता ने फ़िल्मकारों के लिए गंभीर चुनौती प्रस्तुत की है, यह इस साल दक्षिण की फिल्मों से बुरी तरह पिछडे हिंदी सिनेमा के सालाना लेखेजोखे से साफ ज़ाहिर होता है। कमाई के मामले में साल की दस हिट फिल्मों में शुरुआती नाम दक्षिण की फिल्मों के हैं- ‘केजीएफ-2’, ‘आरआरआर’, ‘पोन्निएन सेल्वन’ और ‘विक्रम’। हिदी की सबसे बड़ी हिट ‘ब्रह्मास्त्र’ पांचवें नंबर पर है । ये सारी फिल्में अब ओटीटी पर भी उपलब्ध हैं। 

दरअसल, डबिंग और सबटाइटिल्स की सुविधा के साथ अब हिंदी का दर्शक न सिर्फ भारत की सभी भाषाओं के मनोरंजन का आनंद ले सकता है, बल्कि तमाम विदेशी कहानियाँ भी उसके लिए सहज हो गई हैं। निर्माताओं को भारत के विशाल बहुभाषी दर्शक वर्ग की निरंतर बढ़ती भूख में अपने मुनाफ़े का अहसास हो चुका है। विदेशी कंटेंट की सिर्फ हिंदी में डबिंग नहीं हो रही, तमाम दक्षिण भारतीय भाषाएँ भी इनमें शामिल हैं। डबिंग की सहूलियत ने ओटीटी पर दर्शक संख्या में तेज़ी से इज़ाफ़ा किया है। इस साल ‘हाउस ऑफ़ ड्रैगन’ और ‘मून नाइट’ जैसी चर्चित विदेशी वेब सीरीज़ को करोड़ों की संख्या में दर्शक मिले। टॉम क्रूज़ की ‘टॉप गन मैवरिक’ को खूब पसंद किया जा रहा है। 

यह साल फिल्मों के साथ साथ ओटीटी पर भी सीक्वेल का साल रहा है। जहाँ ‘केजीएफ 2’,  ‘भूलभुलैया 2’, ‘दृश्यम 2’ इस साल की  सफल फिल्में रही हैं, वहीं ओटीटी पर भी  ‘गुल्लक’ और ‘पंचायत’ जैसी देसी कस्बाई मध्यवर्गीय कहानियों की लोकप्रियता की वजह से उनके नये संस्करण भी सामने आए। अपराध कथाओं में ‘क्रिमिनल जस्टिस’, ‘डेल्ही क्राइम’, ‘अनदेखी’ के नये सीज़न भी आए और लोकप्रिय हुए। इस साल ओटीटी के लिए दिए गये फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार ओटीटी की सामग्री की विविधता की बहुत दिलचस्प झलक देते हैं।

सर्वश्रेष्ठ वेब सीरीज़ का पुरस्कार सोनी लिव पर दिखाई गई वेब सीरीज़ ‘रॉकेट ब्वायज’ को मिला जो भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के नायक वैज्ञानिकों होमी जहांगीर भाभा और विक्रम साराभाई पर आधारित है और जिसमें प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के दौर के भारत का माहौल दिखाया गया है  और युवा एपीजे अब्दुल कलाम भी नज़र आते हैं। होमी भाभा के किरदार के लिए जिम सरभ को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला । 

जिम सरभ की अब तक पहचान हिंदी फिल्मों में दोयम दर्जे के खलनायक या चरित्र अभिनेता की रही है। रॉकेट ब्वायज़ में पहली बार उनके भीतर के अभिनेता को एक बड़ा मौका मिला और उन्होंने बख़ूबी इसका इस्तेमाल किया। यह पहचान और सम्मान ओटीटी की बदौलत ही संभव हो पाया है।

नीना गुप्ता, रघुवीर यादव, पवन मल्होत्रा जैसे समर्थ अभिनेताओं को ओटीटी ने नया जीवन दिया है। ‘पंचायत सीज़न 2’ के लिए नीना गुप्ता और रघुवीर यादव को पुरस्कार मिला। इसी वेब  सीरीज़ के लिए जीतेंद्र कुमार को भी पुरस्कृत किया गया जो ओटीटी की बदौलत एक जाना-पहचाना चेहरा बन चुके हैं। अगर ‘गुल्लक’ जैसी वेब सीरीज़ नहीं होती तो जमील खान और गीतांजलि कुलकर्णी जैसे शानदार कलाकार फिल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाओं में ही खो जाते। ‘गुल्लक’ के सीज़न 3 के लिए दोनों को पुरस्कार मिलना ओटीटी की पहुँच का भी एक प्रमाण है। पवन मल्होत्रा  और सुप्रिया पाठक को ‘टब्बर’ के लिए पुरस्कार मिला। 

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बड़े परदे के तमाम चर्चित सितारे भी अब ओटीटी की ताक़त पहचानने लगे हैं । ओटीटी के लिए ख़ास तौर पर फिल्में बन रही हैं। बड़े सितारों की फिल्मों के राइट्स के लिए अब ओटीटी पर मोटी रक़म मिल रही है। शाहरुख़ खान की आने वाली फिल्म ‘पठान’ के बायकॉट के शोर के बीच यह चर्चा भी है कि ‘पठान’ को महँगी क़ीमत पर ओटीटी पर दिखाने का सौदा हो चुका है। आमिर खान की फिल्म ‘लाल सिंह चड्ढा’ सिनेमाघरों में नहीं चली लेकिन ओटीटी पर उसे तारीफ भी मिली और दर्शक भी काफी मिले।   

अभिषेक बच्चन बड़े परदे पर नहीं दिख रहे लेकिन उनको ‘दसवी’ फिल्म के लिए ओटीटी पर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला। ओटीटी पर फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार तापसी पन्नू को ‘लूपलपेटा’ के लिए मिला जिनकी फिल्में अब बड़े परदे के बजाय ओटीटी पर ज्यादा चर्चित होती हैं। अनिल कपूर को ‘थार’ के लिए सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता का पुरस्कार मिला। माधुरी दीक्षित नेटफ्लिक्स और अमेज़न प्राइम पर आ चुकी हैं। मलाइका अरोड़ा ओटीटी पर अपनी कहानी सुना रही हैं।  

ओटीटी ने दर्शक को विकल्प दिये हैं और फिल्म निर्माताओं को लिए चुनौतियाँ भी खड़ी की हैं। नये दौर के दर्शक के लिए नये नज़रिये से पुरानी कहानी कहना एक मुश्किल काम है। ओटीटी के लिए सामग्री बनाने वालों ने इस चुनौती को गंभीरता से लिया है।

साल की शुरुआत में ही ‘रंजिश ही सही’ और ‘ये काली काली आँखें’ के नाम से दो वेब सीरीज़ आईं थीं जिनके शीर्षक  संयोग से दो बहुत लोकप्रिय संगीत रचनाओं के मुखड़े से लिये गये थे। मेहंदी हसन की आवाज़ में पाकिस्तानी शायर अहमद फ़राज़ की एक बहुत मशहूर ग़ज़ल है - ‘रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ, आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ’! 

इस ग़ज़ल के मुखड़े से ही शीर्षक निकालकर महेश भट्ट् वूट सेलेक्ट पर वेब सीरीज़ ‘रंजिश ही सही’ में  सांकेतिक तौर पर अपनी और परवीन बाबी की प्रेम कहानी को ओटीटी के दर्शकों के लिए नये रंगरूप में सामने लेकर आये । निर्माता उनके भाई मुकेश भट्ट थे और बैनर उनकी कंपनी विशेष एंटरटेनमेंट का था लेकिन सीरीज़ के निर्देशक महेश भट्ट नहीं थे। लेखक-निर्देशक के तौर पर पुष्पराज भारद्वाज का नाम था।   

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शोहरत हासिल कर चुके लोग आम तौर पर अपनी निजी ज़िंदगी, अपने अतीत के स्याह पहलुओं को ढाँप कर, छुपा कर रखते हैं ताकि किसी को पता न चले। हिंदी फिल्मों के मशहूर निर्माता- निर्देशक महेश भट्ट इनमें एक दिलचस्प अपवाद हैं। महेश भट्ट अपनी निजी ज़िंदगी को उघाड़ कर ‘अर्थ’, ‘जनम’, ‘ज़ख़्म’ जैसी संवेदनशील फिल्में बना चुके हैं और ‘लहू के दो रंग’, ‘नाम’, ‘नाजायज़’ जैसी ठेठ मसाला फिल्में भी जहाँ उनके जीवन के अक्स देखे जा सकते हैं।

इस साफ़गोई और बेबाकी के लिए महेश भट्ट काफी तारीफ़ और आलोचना भी हासिल कर चुके हैं। यह कोई इत्तिफ़ाक़ नहीं कि उनकी फिल्मों में नायक का अवैध संतान होना, प्रेम त्रिकोण और विवाहेतर प्रेम संबंध कहानियों का केंद्रीय तत्व रहे हैं। महेश भट्ट के मन में अपने निजी जीवन की टीस, तकलीफ और नाराज़गी शायद इतनी तीखी और गहरी है कि वह बार-बार ऐसी कहानियों की तरफ लौटते हैं जहाँ किरदारों की आड़ में खुद को बेपर्दा कर सकें ।

आठ क़िस्तों में फैली ‘रंजिश ही सही’ के अस्वीकरण (डिस्क्लेमर) में कहा गया कि यह वास्तविक जीवन की घटनाओं से प्रेरित एक काल्पनिक प्रोग्राम है। लेकिन महेश भट्ट की कहानी से परिचित और शबाना, स्मिता, कुलभूषण खरबंदा वाली चर्चित फिल्म ‘अर्थ’ देख चुके लोग काल्पनिक नामों के पीछे छिपे असली किरदार आसानी से पहचान सकते हैं। यूँ भी कह सकते हैं कि यह ‘अर्थ’ फिल्म से पहले वाले महेश भट्ट की कहानी है जिन्हें उलझे हुए निजी रिश्तों ने तकलीफ भरी कई कहानियाँ दुनिया को सुनाने के लिए दे दीं।

उसी तरह शाहरुख़ खान की हिट फिल्म ‘बाज़ीगर’ के बेहद लोकप्रिय गाने के मुखड़े से शीर्षक लेकर ‘ये काली काली’ आंखें नेटफ्लिक्स पर रोमांटिक थ्रिलर वेब सीरीज़ थी जिसका पहला सीज़न उत्तर भारत के सवर्ण वर्चस्ववादी राजनीतिक-सामाजिक ढाँचे की छतरी तले पनपे कस्बाई जुनूनी इश्क़ की कहानी से शुरू होता है और एक दिलचस्प सस्पेंस थ्रिलर के मोड़ पर ख़त्म होता है ।

बचपन का ऐसा प्यार जिसमें ब्राह्मण-ठाकुर का एंगल भी दिखा। ताहिर राज भसीन की यह दूसरी सीरीज़ थी । ‘जो रंजिश ही सही’ के तुरंत बाद नेटफ्लिक्स पर आ गई । ओटीटी की दुनिया में यह साल ताहिर राज भसीन के लिए अच्छा रहा। हिंदी फिल्मों के दर्शकों ने ताहिर राज भसीन को रानी मुखर्जी की फिल्म ‘मर्दानी’ में खलनायक के अलावा नंदिता दास की फिल्म ‘मंटो’ में लेखक सआदत अली मंटो के दोस्त और पुराने दौर के फिल्म अभिनेता श्याम के किरदार में देखा होगा। 

इसके अलावा 1983  क्रिकेट वर्ल्ड कप के नायकों पर कबीर खान की फिल्म ‘83’ में ताहिर भारत के दिग्गज बल्लेबाज सुनील गावस्कर की भूमिका में दिखाई दिये थे।  तापसी पन्नू के साथ उनकी फिल्म ‘लूपलपेटा’ भी नेटफ्लिक्स पर दिखी जो विदेशी फिल्म ‘रन लोला रन’ का भारतीय रूपांतर था। 

ओटीटी पर मनोरंजन की रूटीन खेप के अलावा ऐतिहासिक, समसामयिक राजनीतिक-सामाजिक विषयों और अपराध कथाओं की भी मांग बढ़ रही है। इस साल ‘मुखबिर’ और ‘तनाव’ जैसी वेब सीरीज़ ने भारत, पाकिस्तान और कश्मीर से जुड़ी कहानियों को पेश किया जिनमें भारत के दर्शक की दिलचस्पी है। ओटीटी की कहानियों का विस्तार आने वाले समय में सिनेमा के लिए गंभीर चुनौती बन चुका है।

अब वे फिल्में ही दर्शक को सिनेमा हॉल की तरफ आकर्षित कर पाएँगी जिनमें या तो कहानी, निर्देशन और अभिनय बहुत दमदार होंगे या जिनकी प्रस्तुति बहुत चमत्कारी, चमक दमक वाली होगी। 2023 के लिए फिल्म उद्योग के लिए बड़ा सबक यह है कि सिनेमाघर में दर्शक चाहिए तो अच्छी कहानियों पर ज्यादा मेहनत की जाए। 



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