बगर पछ मर सर म भर दय मजहब...

बगैर पूछे मेरे सिर में भर दिया मजहब

मैं रोकता कैसे, मैं तो बच्चा था...

लगातार वृक्ष वनस्पतियों, वन्य जीवों, जड़ी बूटियों, पानी के श्रोतों की बात करना और यह कहना कि पढ़ने की संस्कृति का विकास हो..आपको बोर करता होगा। तो यह किस्सा पढ़िए...मैंने अपना स्नातक मुसलमान घर में रहकर पूरा किया। तब हुआ यह कि शिवरात्रि का दिन था, मेरे धर्म के विश्वास थोड़ा अलग रहे हैं तो व्रत उपवास पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया कभी।

उस दिन सुबह हमारी बहन गुलनाज आई और बोली दद्दा आज आपको खाना नहीं है।आज आपका रोजा रहेगा।आप फटाफट नहाओ और नैना देवी मंदिर जाओ। कोई भट्ट जी पड़ोसी थे।उनकी बिटिया और गुलनाज ने पूजा की थाली सजाई।

मामी यानि गुलनाज बहन की अम्मी बाहर निकली, वे रामपुर के किसी मौलवी परिवार की बड़ी सलीकेदार गंभीर महिला थीं, बोली पूजा की थाली में रुई और तेल क्यों नहीं रखा।जाओ घर से लाओ।भट्ट की की बिटिया अपने पूजा घर से वह लेकर आई, फिर हम चार लोग, यानि मैं, भट्ट जी की बिटिया, उसका भाई और गुलनाज नैना देवी मंदिर गए। पूजा की।फिर घर आकर चाय मिली। थोड़ा फल मिले। खाना दिन भर नहीं मिला।

नैनीताल की दीवाली, ईद हमेशा यादगार रही। आज भी कई जोड़े हैं जो धर्म से अलग हैं लेकिन बरसों से परिवार बनाकर रहते हैं। जरा जवान हुए तो इंतखाब में जहूर भाई की दुकान अड्डे बाजी के लिए होती थी।

हमने कश्मीर से केरल तक यात्रा की, दिल्ली में जहांगीरपुरी की गलियां छानीं, मुरादाबाद से लक्सर, रुड़की के गांव गांव सर्वे किया और देश के अनेक प्रदेशों में तमाम मुहल्लों में गए। अभी कुछ ही समय पहले मध्य प्रदेश के विदिशा के गांवों में घूमे। किसान, बागवान कर्मचारी, बढ़ई से लेकर व्यापारी और आम जन मिले।कोई मुसलमान था तो कोई हिंदू, कोई दलित तो कोई महादलित.. सब साथ रहते आए हैं। कोई विद्वेषी नहीं मिला।

मेरी उम्र पचास से ऊपर जा चुकी है। अभी तक ऐसा कोई मुसलमान नहीं मिला जिसने कभी जबरन अपनी आस्था हमारे ऊपर थोपने की कोशिश की हो। हमको इस देश के सप्तरंग पर विश्वास करना चाहिए या साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने वाली कार्यवाही से जुड़ना चाहिए। यह संकट जबरन खड़ा किया जा रहा है।देवा शरीफ से लेकर, कलियर पिरान तक,अजमेर शरीफ समेत तमाम मजारों तक जाना हुआ। सभी में प्रेम और भक्ति की ही बातें सुनीं।

ऐसा नहीं कि जागेश्वर, महाकाली, बद्री केदार, हरिद्वार से काशी विश्वनाथ और तमाम दक्षिण के मंदिरों तक नहीं पहुंचे, हम तो चर्च में कई महीने रहे और देश भर के गुरुद्वारों का लंगर छका है। सभी तो अपने ही थे।

सभी की हवा, पानी, मिट्टी, पेड़ और खेती का उत्पादन एक सा ही था। आज लगातार जब माहौल को विषाक्त बनाया जा रहा है तो एक बार फिर कबीर वाणी की याद हो आई है...

कह कबीर कैसे निभे, बेर केर को संग

वे डोलत रस आपने उनके फाटत अंग...

    जय नंदा जय हिमाल

(बीएस बिष्ट की फेसबुक वॉल से)



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